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Monday, June 5, 2017

पर्यावरण दिवस













पर्यावरण दिवस
की जरूरत
तय  हो  गयी थी
उसी वक्त
जब पहली बार
पत्थर रगड़कर
आग बनाई थी हमने
पेड़ कभी याद आएंगे
तय हो गया था
उसी वक्त
जब पहला पेड़
काटा था हमने
बेदम हो जाएंगी साँसे
तय हो गया था
उसी वक्त
जब जल से हटकर
कोई द्रव
बनाया था हमने
शोषण होगा धरा का
ये तय हो गया था
उसी वक्त
जब कुछ तलाशने
पहली बार चीर
छाती धरा की
एक गड्ढा बनाया था हमने
ये सब तय था
क्योंकि हमारी दौड़ ही है
अधिक से अधिक
पा लेने की
जीवकोपार्जन के नाम पर
दोहन हमारा स्वभाव ,
दिमाग चलता है हमारा,
एक होड़ के शिकार हैं हम
क्योंकि,
विकासशील हैं हम
आविष्कारक हैं
अन्वेषक हैं
प्रगतिशील हैं
प्रबुद्ध और सर्वोत्कृष्ट
प्रजाति हैं हम
हमारी जरूरतें
हमारी जिम्मेदारियों से
हमेशा आगे रहीं हैं,
तो अब मनाते रहें
पर्यावरण दिवस
                ••••••रजनीश (05/06/17)

Thursday, February 19, 2015

रोशनी और अंधेरा



रोशनी कर तो ली मैंने अंधेरा भी गुम हो गया
पर चिराग की जुगत में रस्ता ही गुम हो गया

अंधेरे में थी ना बात कि चरागों को बुझा सके
पर हवा का झोंका साजिश में शामिल हो गया

अंधेरा न आया कहीं से न गया ही था कहीं  
जला बस इक चिराग माहौल रोशन हो गया

रही संग उसके रोशनी जब तक जला चिराग
थक कर क्या रुका वो अंधेरे में खो गया 

रोशनी का समंदर  अंधेरे को डुबा न सका 
जाने कहाँ जलते चरागों का  दम खो गया

बढ़ते कदमों को रोकने का दम अँधेरों में कहाँ
जब सफर बुलंद हौसलों से रोशन हो गया 

अजब सी बात रोशनी में हम तुम ज़ुदा ज़ुदा
पर बंद आँखों से जब देखा मैं तुम हो गया
.....रजनीश (19.02.15)

Saturday, December 3, 2011

आमंत्रण

DSCN5102
घूमती है धरा सूरज के चहुं ओर
चंदा लगाता है धरा के फेरे
पेड़ करते हैं जिसे छूने की कोशिश 
मुंह किए रहती है सूरजमुखी
उस सूरज की ओर

उड़ते है पंछी बहता है पानी
चलती है हवा होती है बरखा
बदलते हैं मौसम
हर कोने पर  होती है
बीतते समय की छाप
जो लौट लौट कर आता है
एक निरंतरता और
एक पुनरावृत्ति
एक नाद जिसकी अनुगूँज हर कहीं
एक स्वर लहरी जो बहती है हर कहीं
सूरज चाँद तारे और धरा
कोई तारा टूटा तो कोई तारा जन्मा
सभी करते नृत्य निरंतर
गाते हैं सभी
ब्रम्हान्डीय संगीत ...

इधर हम धरा के सीने में
अपना शूल चुभाते 
पानी की दिशा मोड़ते
पंछियों के घर तोड़ते 
फैलाते हैं दुर्गंध  और कोलाहल
हम सूरज के साथ नहीं चलते
हमारी दिशा विनाश की दिशा है
हमारा रास्ता विध्वंस का है
जैसे हम इस सुर-संगम का हिस्सा नहीं !

अच्छा लगता है
हमें कृत्रिम वाद्यों की धुन पर
गाना और  नाचना
क्यूंकि  होते हैं हम उस वक्त
प्रकृति के करीब उसी के अंश रूप में
एक क्षणिक आनंद
और फिर से नीरस दिनचर्या
हमें एहसास नहीं
निरंतर गूँजते
संगीत का 
क्यूंकि  हमने रख लिए हैं
 हाथ कानों पर
और पैरों में बेड़ियाँ डाली हैं
हमारे पाँवों को
 नहीं आता थिरकना
प्रकृति के सुर, लय और ताल पर
जो जीवित है गुंजायमान है
हर क्षण और हर कण में

आओ, अपना रास्ता मोड़ लें हम
प्रकृति के साथ प्रकृति की ओर आयें
नैसर्गिक संगीत में हरदम थिरकें
और  उत्सव का हिस्सा बन जाएँ  ...
....रजनीश (03.12.2011)

Thursday, June 2, 2011

हवा

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अभी कुछ पल ही बीते
धूप बिखेर रही थी अंगारे
जमीन  कर रही थी कोशिश
कहीं छूप जाने की
फिर अचानक
धूप में मिलने लगी धूल
हवा चलते चलते दौड़ने लगी
दौड़ते दौड़ते उड़ने लगी
बन गई भयंकर आँधी
और उड़ाने लगी सब कुछ
जो उसके रास्ते में आया
पहले झुके फिर टूट भी गए पेड़
उड़ गए घोंसले और उड़ गईं छतें आशियानों की
हवा भाग रही थी बदहवास
उसका आवेग उसका आवेश देख
मैं सकते में था
न ही थी उसकी कोई दिशा निर्धारित
लगा जैसे कोई अंतर्द्वंद
चल रहा था उसके अंदर
पहले कभी देखा नहीं था
हवा को इस तरह भागते बदहवास ,
इतनी शक्ति लगाते,
बिजली से  चुभा-चुभा कर 
बादलों को भी उसने नीचे लाकर पटक दिया
और जमीन को पूरा भिगो दिया
किया विध्वंस हर तरफ
मैं कहता रह गया उससे कि
खड़े रहने दो मुझे इस मैदान में
मुझे समझना है तुम्हारी इस हालात की वजह
पर उसने एक न सुनी
जब उखड़ने लगे मेरे पैर
तो उससे दूर हुआ
और घर की बालकनी से
देखने लगा  हवा का धूल ,धूप और 
पानी के साथ  तांडव
पर इस जद्दोजहद के बाद
इतना तो समझ पाया
कि हवा उद्वेलित है
रुष्ट भी है और आतंकित भी
इसीलिए रौद्र रूप धारण किया है
धूप, धूल और बादल भी उसके साथ हैं
इस मोर्चे में ,
उसने बताया  तो नहीं
पर मुझे हुआ ये महसूस कि
उसे इस बिगड़े हाल में
पहुंचाने वाले हम ही हैं  ...
...रजनीश (01.06.2011)
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