अभी कुछ पल ही बीते
धूप बिखेर रही थी अंगारे
जमीन कर रही थी कोशिश
कहीं छूप जाने की
फिर अचानक
धूप में मिलने लगी धूल
हवा चलते चलते दौड़ने लगी
दौड़ते दौड़ते उड़ने लगी
बन गई भयंकर आँधी
और उड़ाने लगी सब कुछ
जो उसके रास्ते में आया
पहले झुके फिर टूट भी गए पेड़
उड़ गए घोंसले और उड़ गईं छतें आशियानों की
हवा भाग रही थी बदहवास
उसका आवेग उसका आवेश देख
मैं सकते में था
न ही थी उसकी कोई दिशा निर्धारित
लगा जैसे कोई अंतर्द्वंद
चल रहा था उसके अंदर
पहले कभी देखा नहीं था
हवा को इस तरह भागते बदहवास ,
इतनी शक्ति लगाते,
बिजली से चुभा-चुभा कर
बादलों को भी उसने नीचे लाकर पटक दिया
और जमीन को पूरा भिगो दिया
किया विध्वंस हर तरफ
मैं कहता रह गया उससे कि
खड़े रहने दो मुझे इस मैदान में
मुझे समझना है तुम्हारी इस हालात की वजह
पर उसने एक न सुनी
जब उखड़ने लगे मेरे पैर
तो उससे दूर हुआ
और घर की बालकनी से
देखने लगा हवा का धूल ,धूप और
पानी के साथ तांडव
पर इस जद्दोजहद के बाद
इतना तो समझ पाया
कि हवा उद्वेलित है
रुष्ट भी है और आतंकित भी
इसीलिए रौद्र रूप धारण किया है
धूप, धूल और बादल भी उसके साथ हैं
इस मोर्चे में ,
उसने बताया तो नहीं
पर मुझे हुआ ये महसूस कि
उसे इस बिगड़े हाल में
पहुंचाने वाले हम ही हैं ...
...रजनीश (01.06.2011)
8 comments:
आंधी पानी और वातावरण के बिम्ब लिए यथार्थ के धरातल पर लाती सुन्दर रचना ,आभार
kya khub chitar hai bhut khub rachna hai...
soch ki ye udaan purwa se kam nahi
तिवारी जी अप के ब्लॉग पर आकर प्रशन्न हुए कविताये सार्थक है स्वयं-खिचित चित्रों के साथ बधाई
्सटीक चित्रांकन किया है।
हवा के दिल की बात को समझने का प्रयास करती प्रकृति के भीषण रूप को दिखाती प्रवाहमयी कविता पढ़कर आंधी का सा समां प्रकट हो गया...अति सुंदर !
प्रकृति का एक यह भी रूप है...
सुंदर रचना...
beautiful depiction of wind.
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