Tuesday, June 7, 2011

परतें सच की

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क्या है सच
जो मेरे पास
या जो तुम्हारे पास
तुम्हारा सच मुझे धुंधला दिखता है
मेरा सच तुम्हें
सारे सच चितकबरे हैं शायद
कहीं काले कहीं सफ़ेद
कुछ अंधेरे में कुछ उजाले में
या सारे सच हैं बस अधूरी तस्वीरें
हम दोनों  ही नकार देते हैं
एक दूसरे का सच
दोनों सच को
एक बर्तन में मिलाकर देखो
शायद मिल जाये असली सच
पर चकित ना होना ,
खाली भी मिल सकता है
तुम्हें ये बर्तन

करीब से देखो
सच की होती है कई परतें
हर परत पर होता है सच
परत दर परत बदलता
गहराता चला जाता है सच
अब छील-छील कर परतें
डालते जाओ उसी बर्तन में
आखिरी परत उतरने के बाद
देखना, हाथ में कुछ नहीं बचता
इस कुछ नहीं का रूप
अपरिभाषित,  अज्ञात, अमूर्त, शून्य है
एक छलावा है, एक धारणा है सच
जायके के लिए बना एक व्यंजन
इसीलिए कभी-कभी कड़वा लगता  है
एक मजबूरी है सच ,
एक  आसरा है जीने का,
जिसकी जरूरत होती है
ऑक्सीजन  के साथ ,
इसीलिए उतनी ही परतें उघाड़ना इसकी
जितना तुम बर्दाश्त कर सको ...
...रजनीश (07.06.2011)

9 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया लिखा है सर!

रश्मि प्रभा... said...

उतनी ही परतें उघाड़ना इसकी
जितना तुम बर्दाश्त कर सको ...
waakai

vandana gupta said...

बहुत ही कडवा सच कह दिया।

Anita said...

सुंदर अहसासों से सजी कविता, सच एक आसरा है जीने का, सही है... और सच एक मजबूरी भी बन जाता है. सच पर ही तो टिकी है यह कायनात...

वीना श्रीवास्तव said...

कड़ुवा सच....

Jyoti Mishra said...

lovely !!

truth is often hard to digest.

विभूति" said...

bhut hi khubsurat...

रचना दीक्षित said...

करीब से देखो
सच की होती है कई परतें
हर परत पर होता है सच
परत दर परत बदलता
गहराता चला जाता है सच.

सच का सुंदर विवेचन किया कविता के माध्यम से. सुंदर लगी कविता.

Dr (Miss) Sharad Singh said...

मन की पर्तों को खोलती बहुत मर्मस्पर्शी बहुत सुन्दर रचना...

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....