कई बार सोचा
कुछ पल बतिया लें
अपनी कलम से
और दिल की दीवारों
पर कहानियाँ बुनती तस्वीरों को
इन पन्नों पर उतार लाएँ
पर झोली में
वक्त का कोई टुकड़ा नहीं मिला
जो इन तस्वीरों के नाम कर दें
भागती हुई इस ज़िंदगी में
कोई ऐसा मुकाम भी नहीं
जहां ठहर अपने दिल को थाम लें
उसकी धक-धक सुनें
दिल को गले लगाएँ
दिल को गले लगाएँ
भागते रहते हैं हर दम
साँस फूलने पर ही रुकते हैं
खुद से भागते भागते
फूलती साँसों में
उन तस्वीरों को साफ कर लेते हैं
कभी काँच बदला कभी डोर सीधी की
कभी तस्वीर की तारीख़ फिर से लिखी
कभी बस एक नज़र भर देख लिया
इतना वक्त नहीं कि
तस्वीरों को गोद में लेकर बैठें
उनसे कुछ बातें करें
जब-जब जोड़ते हैं कुछ पल
चुरा कर यहाँ-वहाँ से
हमें दुनियादारी उठा ले जाती है
और कलम की स्याही
एक कैद में बंद
बस सूखती चली जाती है....
रजनीश (31.01.2012)