तब सिंचती है धरती
जहां फूटते है अंकुर
और फसल आती है
बहता है पसीना
तब बनता है ताज
जिसे देखती है दुनिया
और ग़ज़ल गाती है
बहता है पसीना
तब टूटते है पत्थर
चीर पर्वत का सीना
राह निकल आती है
बहता है पसीना
तब बनता है मंदिर
चलती है मशीनें
जन्नत मिल जाती है
जो बहाता पसीना
जो बनाता है दुनिया
उम्र उसकी गरीबी में
क्यूँ निकल जाती है
....रजनीश (01.05.2012)
अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर
13 comments:
सार्थक रचना ...
शुभकामनायें ...
यही तो भाग्य की विडम्बना है हमारे देश में जो पसीना बहाता है खुद एक झोंपड़े में रहता है बड़ी बड़ी इमारते बनाता है खुद एक कोठरी में रहता है ये फर्क भगवान् ने तो नहीं किया था इंसान ही इंसान का शत्रु है आपकी कविता बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है ...बहुत अच्छा लिखा
गहन ....न जाने यह कैसा विरोधाभास है....सब कुछ बनाने वालों के जीवन में कमी ही बनी रहती है....
पसीना जगत में खून बनकर दौड़ता है।
यही तो मजदूर की विडम्बना है,
बहुत सुंदर सार्थक सटीक प्रस्तुति,..बेहतरीन रचना
MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
यही तो भाग्य की विडम्बना है....
बहुत सुंदर सार्थक सटीक प्रस्तुति,..बेहतरीन रचना
MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
सुंदर और सटीक रचना ...
हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
सार्थक प्रश्न उकेरती रचना
बहुत ही बेहतरीन और सार्थक रचना....
बहुत ही सारगर्भित रचना । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
यही प्रश्न है सालता, मन को बारम्बार
फूल खिलाता जो यहाँ,उसके हिस्से खार.
मजदूर दिवस पर सुंदर पोस्ट !
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