Sunday, March 3, 2013

खेल इंसान का


राह तो बस राह है 
उसे आसां या मुश्किल बनाना  
इंसान का खेल है 

तकदीर तो बस तकदीर  है 
उसे बिगाड़ना या  बनाना 
इंसान का खेल है

पत्थर  तो बस पत्थर  है 
पत्थर को भगवान बनाना 
इंसान का खेल है 

फूल तो बस फूल है 
फूल  सेज़ या सिर पर चढ़ाना  
इंसान  का खेल है 

यार तो बस यार हैं 
यार को जात  रंग में ढालना 
इंसान का खेल है 

चाहत तो बस चाहत है 
उसे प्यार या नफ़रत बनाना 
इंसान का खेल है 

दीवारें तो बस दीवारें हैं 
उनसे घर या कैदखाने बनाना 
इंसान का खेल है 

आग तो बस आग है 
आग में जलना जलाना 
इंसान का खेल है 

पैसे तो बस पैसे हैं 
उन्हें कौड़ी या खुदा बनाना 
इंसान का खेल है 

धरती तो बस धरती है 
इसे ज़न्नत या जहन्नुम बनाना 
इंसान का खेल है 

इंसान तो बस इंसान है 
उसे हिन्दू या मुसलमान बनाना 
इंसान का खेल है 

......रजनीश (03.03.2013)

9 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह!
आपकी यह प्रविष्टि कल दिनांक 04-03-2013 को सोमवारीय चर्चा : चर्चामंच-1173 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत कुछ मनुष्य का रचा.. कभी आवश्यकता के लिए और कभी स्वार्थ के लिए

अज़ीज़ जौनपुरी said...

nice creation

रविकर said...

बहुत बढ़िया है आदरणीय-
शुभकामनायें-

Dinesh pareek said...

बहुत खूब

मेरी नई रचना
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

ये कैसी मोहब्बत है

प्रवीण पाण्डेय said...

कितनी बेतरतीबी से इन्सान यह खेल खेल रहा है।

रचना दीक्षित said...

यह इंसानी फितरत ही है. सुंदर, सार्थक भावनात्मक कविता.

ओंकारनाथ मिश्र said...

सुन्दर रचना.

Onkar said...

बहुत खूब

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....