Friday, April 13, 2012

भूकंप और सूनामी

[1]
तनाव में सांस लेती
ख़्वाहिशों की प्लेटें
दुनियादारी के बोझ में डूबी
मजबूरीयों के सागर तले
रिश्तों की चट्टानों के बीच
अक्सर टकराती हैं
कभी मैं पूरा हिल जाता हूँ
कभी दिल की गहराइयों में
एक और सुनामी आ जाती है

[2]
कई बार किया है सामना
पैरों तले काँपती जमीन का
कई दरारें पड़ीं
दिल की दीवारों में
कई बार रेत से
हसरतों के घर बनाते
और सागर की लहरें गिनते गिनते
मुझे यकायक आई सूनामी ने
मीलों दूर अनजानी
सड़कों पर ला फेंका और तोड़ा है
हर बार खुद को
बटोरकर जोड़कर
वापस आ जाता हूँ
फिर उस सागर किनारे
फिसलती रेत पर चलने
किनारे से टकराती लहरों
के थपेड़ों में खुद को भिगोने
और बनाने फिर से एक घरौंदा रेत का
.......रजनीश (13.04.2012)

9 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रकृति से जूझना मनुष्य की नियति है।

Rajesh Kumari said...

रजनीश जी प्राकर्तिक आपदाओं से अपने आप को आत्मसात करने पर हुए स्फुटित भावों को बखूबी उकेरा है अपनी कविता में बहुत पसंद आई आपकी रचना

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 14/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

प्रस्तुतीकरण का अंदाज निराला है

उल्फ़त का असर देखेंगे!

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत संवेदनशील रचनायें ...

अनामिका की सदायें ...... said...

prakriti k sath manobhavo ka tal-mel ...gehen abhivyakti.

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत बढ़िया.....
सार्थक एवं गहन अभिव्यक्ति....
अनु

डॉ. मोनिका शर्मा said...

गहन भाव..... जीवन की जद्दोज़हद लिए

Tulika Sharma said...

दिल की गहराइयों में सुनामी आना ,फिर जुट जाना रेत का घरोंदा बनाने में ....बहुत खूब

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....