देखता हूँ अक्सर
बनते बिगड़ते
यहाँ वहाँ भागते
अपने साथ
तिनकों और पत्तों को
ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ते
पत्ते और तिनके
अपनी किस्मत के मुताबिक
आसमान में कटी पतंग जैसे
दूर दूर जा गिरते हैं
पता नहीं कहाँ से
उठते है ये बवंडर
धरती के सीने में
दो शांत पलों के अंतराल में
हवा कितनी तेज हो जाती है
अचानक , जैसे किसीने उसकी
दुखती रग पर हाथ रख दिया हो
आसमान छू लेने की चाहत में
तेजी से घूमते हुए उठते हैं
धूल के बवंडर
थोड़ी देर का
आवेग और आवेश
पर इनके बाद के शांत पल
अपने साथ लिए रहते हैं
विध्वंस के निशान
और रिसते ज़ख्म
दिल की दीवार का
कुछ हिस्सा जैसे
झंझावात में
टूट कर बिखर जाता हो
और आँखों में घुस आती है धूल
और दिखता नहीं कुछ भी
कई बार बवंडर
मुझसे निकलकर
धूल उड़ाते भागते हैं
कई बार मैं खुद
ऊंचाइयों से गिरा हूँ
बवंडर में उड़कर
कुछ बवंडर दूर से
मेरे पास आते गुम गए
कभी मैं ही खो गया बवंडर में
कभी आने का एहसास
पहले दे देते हैं ये
कभी इनका पता चलता है
इनसे गुजर जाने के बाद
बवंडरों की ज़िंदगी
होती है कुछ पलों की
पर खत्म नहीं होते ये
जाने के बाद भी
अमरत्व प्राप्त है इनको
बवंडर खुद बना कर भी देखा है
और इसे मिटा कर भी
पर इन बवंडरों पर काबू
ना हो सका अब तक
उड़ती धूल के थपेड़ों का सामना करता
खड़े रहने की कोशिश करता हुआ
मैं हर बार खुद को
थोड़ा और जान लेता हूँ
पर अब तक पहेली हीं रहे
धूल के बवंडर ....
...रजनीश (21.04.2012)
9 comments:
bahut sahi likha hai
धूल के बवंडरों से मन के बवंडरों की तुलना... गहन अभिव्यक्ति
इस बबंडर का रहस्य भी गहरा है मानव जीवन की तरह. अच्छा समय प्रस्तुत किया रजनीश जी.
बधाई इस प्रस्तुति पर.
अच्छे भाव -
बधाई एक उत्कृष्ट रचना के लिए ।।
सादर ।।
मन-हृदय में आवेग-संवेग के बवंडर उठते रहते हैं।
कविता के माध्यम से आपने अच्छी तुलना की है।
थोड़ा उठकर गिरना तो सीखना ही होगा, बवंडर वही तो सिखा जाते हैं।
सुंदर प्रस्तुति...
बधाई एक उत्कृष्ट रचना के लिए!
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bahut hi sundar likha hai--jitni taarif karun kum hai.
बवंडरों को स्वीकार करे मन ....
शुभकामनायें आपको !
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