Sunday, July 8, 2012

दिन का बुलावा

हर दिन है
एक निमंत्रण
एक यात्रा का
हर दिन
बढ़ाकर हाथ
कहता है चलो
कभी नींद की ख़ुमारी में
कभी आलस
और कभी
सड़कों पर होते हल्ले में
दब जाती है आवाज़ दिन की
और बीत जाता है
मुझे पुकारता पुकारता
एक दिन

अगर चलूँ
तो रास्ते ही रास्ते ,
अगर रुकूँ
तो उगने लगती हैं दीवारें
फिर चढ़कर और उचककर
इन्हीं दीवारों पर
करता हूँ कोशिश
कि थाम लूँ हाथ
एक नए दिन का

दीवारें मोटी मोटी
पर कोई न कोई कोना
भुरभुरा पाया है हमेशा
ना रुकता और सुन लेता दिन की
तो पैदा ही नहीं होती ये दीवारें
पर रास्ते हैं तो दीवारें भी हैं
दिन भी कहता है यही
पर अक्सर दिखाया है उसने
कि   हैं कई रास्ते दीवारों से होकर भी
और दीवारों के पार
भी हैं मिलती हैं सड़कें
कदम गर बढ़ें तो
बनती जाती है सड़क भी

मैं सुनूँ या ना सुनूँ
देखूँ या ना देखूँ
और उसका हाथ थामूँ या ना थामूँ
दिन बुलाता है हमेशा
साथ चलने
ख़त्म नहीं होती दीवारें
राह के रोड़े ख़त्म नहीं होते
कभी ख़त्म नहीं होता दिन का बुलावा
और रास्ते भी ख़त्म नहीं होते
....रजनीश (08.07.12) 

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

हर दिन बुलाता है, नये सिरे से..

प्रेम सरोवर said...

बहुत सुंदर। नेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

Unknown said...

बहुत अच्छी प्रस्तुती ,शुभकामनायें.


मोहब्बत नामा
मास्टर्स टेक टिप्स

Anita said...

हर दिन एक नया संदेश लेकर आता है और लुभाता है कितने तरीकों से...

Amrita Tanmay said...

चलना ही जिन्दगी है..सुन्दर रचना..

Suresh kumar said...

bahut hi sundar rachna...

dinesh gautam said...

बहुत अच्छी आशावादी रचना। बधाई!

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....