अफवाहों के बाज़ार गरम हैं
कहीं है बारिश कहीं पे सूखा
कोई डाइट पर कोई है भूखा
विषमताओं के इस जंगल में
भटक रहे अपने कदम हैं
कभी कोयला कभी है चारा
घोटालों ने सभी को मारा
बचा खुचा महंगाई ले गई
क्या कहें बस फूटे करम हैं
ये मेरा हक़ वो मेरा अधिकार
सब मिले मुझे मैं न जिम्मेदार
दूसरों पर अंगुलियाँ उठाते
बड़े चतुर मेरे सनम हैं
अब ये शहर रहा नहीं मेरा
छोड़ चला मैं अपना बसेरा
डरी ज़िंदगी , आँखें नम हैं
अफवाहों के बाज़ार गरम हैं
......रजनीश (26.08.2012)
13 comments:
क्या से क्या हो गये..
बहुत ख़ूब!
आपकी यह सुन्दर प्रविष्टि कल दिनांक 27-08-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-984 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
सटीक प्रस्तुति ...
सचमुच आज के हालात बहुत विषम हैं...लेकिन हर रात की सुबह होती है..
सटीक रचना...समस्यायें तो हैं ही खैर..
satik abhiwayakti.....
Quite realistic...
sunderta ke saath likhe hain......
बेहद सशक्त भाव ... आभार इस प्रस्तुति के लिए
यही चतुर सनम देश के नैया डुबाने पर आमदा है
बहुत बढ़िया सार्थक रचना ..
बहुत सुंदर! बेहतरीन!
अत्यंत सम सामायिक चिंतन युक्त प्रस्तुति ..
It was a awe-inspiring post and it has a significant meaning and thanks for sharing the information.Would love to read your next post too……
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