Monday, April 1, 2013

कुछ ...

















पहाड़ों से निकलकर पानी
जमीन पर पूरा नहीं पहुंचता
नीचे आते-आते पी जाती
पानी जड़ें पेड़ों की कुछ
और फंसी हुई टीस की तरह
रहता जमा गड्ढों में कुछ

बोया पूरा वो नहीं है मिलता
चुग जाती है चिड़िया कुछ
तपती दुपहरी ख़्वाब अधूरे
खिलता हुआ सूख जाता कुछ 
हर बीज नहीं बनता है पौधा
मरतीं जैसे उम्मीदें कुछ

घटती जाती पैसों की कीमत
कम होता जाता पैसे में कुछ
कोई पहुँच न पाता मंज़िल तक
थक जाता अंदर पहले ही कुछ
कोई पहुँचता मंज़िलों पर अधूरा  
क्यूंकि रह जाता है पीछे कुछ

है घटता रहता कम होता जाता 
ना मिलता पूरा वापस कुछ
हाँ ,द्वेष बांटे से बढ़ता जाता
पर कटता जाता है भीतर कुछ  
बस प्यार ही ऐसा जग में जिसमें
खोकर सब भी रह जाता कुछ ...
.....रजनीश (01.04.2013)

10 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

यही जीवन का सत्य है, सब खोकर भी सब रह जाता है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बिल्कुल सही..... द्वेष तो बढ़ता ही है ....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बस प्यार ही ऐसा जग में जिसमें
खोकर सब भी रह जाता कुछ ...


जो रह जाता है कुछ इसी के सहारे जिंबदगी कटती जाती है

दिगम्बर नासवा said...

सच भई ... प्रेम बल्कि बढ़ जाता है बांटने से ... जीवन सत्य लिखा है ..

Jyoti Mishra said...

wow.. loved the way u concluded it..
beautiful message !!

हरकीरत ' हीर' said...

bahut khoob ....11

Anita said...

वाह...प्रेम की खुशबु ही ऐसी है जो बाँटने से बढ़ती ही जाती है..कोमल अहसास..

रचना दीक्षित said...

बिना उगे बीज और मरती हुई उम्मीदों का उद्धरण बहुत उम्दा लगा. सुंदर भावपूर्ण कविता.

Onkar said...

सच कहा. प्यार ही है जो कम नहीं होता

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति...

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....