मुझे याद है
वो सुलगती हुई
एक सुनसान दोपहर
जब मैं मुखातिब था उस पेड़ से
जो झुलसा हुआ सूखा-सूखा
खड़ा हुआ था राह किनारे
अपनी ज़िंदगी की डोर थामे
पत्तियों ने भी छोड़ दिया था उसका साथ
वीरानी का घर बस गया था
उसकी डालों पर
और झलकती थी
प्यास हर सिरे से ,
मै पास खड़ा कुछ तलाश रहा था उसमें
एक आईना बन गया था वो पेड़ ,
और आज बारिश हो रही थी
भीगने की तमन्ना
इंतज़ार ही कर रही थी
इन बादलों का
इसी चाहत को साथ लिए
उसी राह से गुजरा
सोचा कुछ गम ही बाँट लूँ
संग उसी पेड़ के ,
पर वो खेल रहा था
नई हरी पत्तियों संग
पत्तों पर गिरती बूंदों में
सुनाई दे रही थी पेड़ की खिलखिलाहट
हवाओं में झूम रहा था
पानी में तरबतर वो पेड़
न थी कोई वीरानी न थी तनहाई
अधूरी प्यास भी नज़र नहीं आई
और एक आईना टूट कर
वहीं बिखरा पड़ा था जमीन पर
वही बारिश मुझ पर भी गिरी
पर भिगा ना सकी थी मुझे
.....रजनीश (16.06.2013)
10 comments:
Good post .. Thx to the author
Happy monsoon :)
loved the concluding lines..
Rain has a way making us all emotional. we just connect with it somehow.
वारिश भी उम्मीद की तरह से आती. आ गयी तो उमीदें पूरी, नहीं तो अगली वारिश का इन्तेज़ार.
सुंदर कविता, अनुपम भाव.
वही बारिश मुझपर भी गिरी
पर भिगो न सकी मुझे
..वाह ... बहुत खूबसूरत भावों से परिपूर्ण कविता !
rajnish sir...aapne puraani yaadein taaza kar di :)
गहन अभिव्यक्ति ....
हर पत्ती प्यासी है,
हर बूँद प्रवासी है।
बहुत सुंदर लाजबाब भावों से परिपूर्ण प्रस्तुति,,,
RECENT POST: जिन्दगी,
जो हारा न ज़िन्दगी से वही सिकंदर बन पाया.
बहुत सुन्दर कहूँगा वे पंक्तियाँ जो कुछ दिन पहले पढ़ी थी
जो हारा न ज़िन्दगी से वही सिकंदर बन पाया.
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