कई बार मरा,
और फिर से जिया हूँ मैं,
पर हर बार ही ज़िंदगी
वही रही पुरानी,
बस जैसे पत्ते झड़ गए
और फिर से आ गए,
कभी कुछ घोसलें बन गए मुझ पर,
कभी कोई राहगीर
दो पल को रुक गया मेरी छाँव में,
कभी कोई फूल ले गया,
कभी किसी ने फल तोड़ा,
किसी को कांटे लगे,
हवाओं ने कई बार झुकाया मुझे,
साल दर साल
परतें चढ़ती रहीं मुझ पर ,
और अब तो बहुत विस्तार हो गया है मेरा,
मैंने सूरज और चंदा दोनों की किरणों को जगह दी है ,
और चाँदनी को भी दिया हैं बिछौना,
मेरे पास से गुजरती रही हैं ढेरों ज़िंदगानियां,
पर ठिकाना किसी ने नहीं बनाया यहाँ,
मुझे पता है कि, तुम
रहते हो दूसरे किनारे पर ,
क्या करूँ , नहीं पहुँच सकता तुम तक,
समय के साथ चलते-चलते
मेरी जड़े भी बहुत भीतर तक चली गईं
और अब भी वहीं खड़ा हूँ
जहां कभी शायद
तुमने ही तो लगाया था मुझे ...
कम से कम देख तो सकते हो ...
कभी समय निकाल तुम ही चले आते इधर ...
....रजनीश (07.03.2011)
2 comments:
मेरी जड़े भी बहुत भीतर तक चली गईं
और अब भी वहीं खड़ा हूँ
जहां कभी शायद
तुमने ही तो लगाया था मुझे ...
कम से कम देख तो सकते हो ...
कभी समय निकाल तुम ही चले आते इधर ...
बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए बधाई।
बहुत ही बढ़िया सर!
सादर
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