Sunday, January 22, 2012

बचपन की बात


बचपन के दिन थे 
कुछ ऐसे पल छिन थे 
ऊपर खुला आसमां था 
पूरा शहर अपना मकां था 

हर बगिया के बेर 
होते अपने थे 
खेलते कंचे और  
बुनते सपने थे 

ना दुनियादारी की झंझट 
ना कोई नौकरी का रोना 
बस काम था पढ़ना 
खेलना-कूदना और सोना  

पर तब क्या सब मिल जाता था 
क्या जैसा चाहा  हो जाता था 
क्या दिल तब नहीं दुखता था 
क्या कांटा तब कोई नहीं चुभता था 

दिल चाहता था उड़ना बाज की तरह 
खो जाना वादियों में गूँजती आवाज़ की तरह 
हर खिलौना  मेरी झोली में नहीं था 
मेरा बिछौना भी मखमली नहीं था 

बचपन में ही जाना पराया और अपना 
कि सच नहीं होता है हर एक सपना 
सीखी बचपन में ही चतुराई और लड़ाई 
अच्छे और बुरे की  समझ भी बचपन में आई 

अफसोस तब भी 
दर्द तब भी होता था 
कुंठा तब भी 
प्यार तब भी होता था 

कुछ बातें ऐसी थी 
लगता बचपन कब बीतेगा 
जैसे नियंत्रण में रहना 
और पढ़ना कब छूटेगा 

बस उम्र ही कम थी 
और सब कुछ वही था 
थोड़ी सोच कम थी 
इसलिए सब लगता सही था 

उत्सुकता ज्यादा 
और शंका कम थी 
सौहार्द्र ज्यादा और
 वैमनस्यता कम थी 

पर थे सब एहसास 
हर भावना मौजूद थी 
लगते थे संतोषी 
पर हर कामना मौजूद थी 

बचपन है आखिर जीवन का हिस्सा 
दिन वही और रात वही है 
बस कुछ रंग हैं अलग 
तस्वीर वही और बात वही है 

कोई बचपन महलों में रहता 
कोई फुटपाथ पे सो जाता है 
किसी को सब मिल जाता है 
कोई बचपन खो जाता है 

हर बचपन एक जैसा नहीं होता 
जैसे नहीं हर एक जवानी 
अलग अलग चेहरे हैं सबके 
सबकी अलग कहानी 
...रजनीश (22.01.2011)

16 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

भिन्न भिन्न बचपन .. बहुत सुन्दर रचना .

आशा बिष्ट said...

sundarta se bhawon ko shabd diye hain..

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बढ़िया प्रस्तुति...
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 23-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

vidya said...

बहुत अच्छी रचना...
सच है, बचपन सबके एक से नहीं हुआ करते..

सादर.

प्रवीण पाण्डेय said...

सब अपना तब सब सपना था..

रेखा said...

विविध रंगों से सजी बचपन ...खूबसूरत रचना

अनामिका की सदायें ...... said...

kaisa bhi ho bachpan lekin jindgi bhar pulkit karta hai hriday ko.

sunder prastuti.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत बढ़िया!

Anita said...

बचपन में भी कुछ अधूरे सपने थे आज भी सपने पुरे करने बाकि हैं...बचपन और वर्तमान की सच्चाइयों को बयान करती सुंदर कविता!

indu chhibber said...

sach,ye padh kar ahsas hua ki sabhi ka bachpan lubhavna nahin hota.

virendra sharma said...

क्या बात है बीज रूप सब कुछ होता है बचपन में .बाकी जीवन रिहर्सल है दोहराव उस बचपन का पल्लवन का फर्क रहता ही है शेष काम पुरुषार्थ है जीवन का काम करने की स्वतंत्रता तो है ही आगे बढ़ने की भी .

dinesh aggarwal said...

मित्र आपकी कविता पढ़कर, याद आ गया मुझको बचपन,
यौवन तो संघर्षशील है, बृद्धावस्था में है चिन्तन,
बेफ्रिकी आनन्द भरा हो, बचपन ही है असली जीवन।
कृपया इसे भी पढ़े
क्या यही गणतंत्र है

Kailash Sharma said...

बहुत सच कहा है कि सब का बचपन और जीवन एक सा नहीं होता..बचपन का बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी चित्रण...

Onkar said...

bahut vividhata liye shabd-chitra

avanti singh said...

bahut hi sundar rachna....bchpan ki kaee yaaden taza ho aaee. pahli baar aap ke blog par aana hua,acha blog hai aap ka...

Vandana Ramasingh said...

bahut sundar ...!!

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