बरस बरस
भिगोती रहीं
उस छत को
जो बनाई थी
भरोसे के गारे से
समाता रहा पानी
छत से रिस-रिस कर
रिश्तों की दीवारों में
कुछ धूल की परतें धुलीं
कुछ पानी रिसकर
मेरी जड़ों में भी गया
फिर सूख गए सोते दर्द के
वक़्त के झोंके
उड़ा ले गए बादलों को
धूप भी आ गई
उतरकर पेड़ों से
पर दरारों में
जमा है पानी अब भी
सीलन
मेरे कमरे में
अब भी मौजूद है ....
....रजनीश (21.06.2012)
10 comments:
पीड़ा रिसे, बहे पर हृदय में न उतरे और न उतरे संबंधों में। यथासंभव बचा के जो रखना है संबंधों को।
In all your poems you employ beautiful analogies,and they tally 100%,right to the end,with what you want to convey;it is a very rare talent.
"सीलन
मेरे कमरे में
अब भी मौजूद है"
वाह वाह
बहुत सुन्दर रचना रजनीश जी
अब भी सीलन मौजूद है...
यादों का पानी रिसता रहता है..
यही है ज़िन्दगी..
सुन्दर अभिव्यक्ति है.
सादर
भरोसा भी भरोसे लायक नहीं रहा...
सुन्दर रचना...
सादर बधाई.
सीमेंट की तरह भरोसा भी मिलावटी है...............
सीलन तो होगी ही....
बहुत प्यारी रचना.
सादर
बहुत मार्मिक रचना...
in dararon ki seelan hai jo kabhi nahi ja sakti. ja sakti hai to bas usi se jiski vajah se chhat risna aarambh hui. kya vishwas ko khareeda ja sakta hai ? nahi....badi mushkil se aata hai aur todne wala ek pal bhi sochta nahi ..
sunder prastuti dil ko chhoo gayi.
कल 25/06/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी http://nayi-purani-halchal.blogspot.in (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत बढ़िया प्रतीक के माध्यम से रिश्तों के दर्द को अभिव्यक्त किया आपने साधुवाद
Post a Comment