क्या करूँ ?
क्या लिखूँ चंद लाइनें
उकेर दूँ जननियों का दर्द
निरीह कोमल अनजान मासूम
नन्ही जान की व्यथा
और नमक डाल दूँ थोड़ा
पहले ही असह्य पीड़ा में...
क्या करूँ ?
क्या लिखूँ दूसरी दुनिया से
और कोसूँ
एक तंत्र को जो बना
मुझ जैसे लोगों से ही
और थोप दूँ सारी जिम्मेवारी
आत्मकेंद्रित पाषाण हो चुकी
अपरिपक्व लोलुप बीमार मानसिकता पर
खुद बरी हो जाऊँ
और भूल जाऊँ सब कुछ
वक्त की तहों मे
नंगी सच्चाईयों को दबा दबा कर...
क्या करूँ?
क्या लिखूँ विरोधी स्वर
जगा दूँ परिवर्तन की आँधी
और बदल दूँ केवल चेहरा अपने तंत्र का
जिसमें अब हो मैं और हम जैसे
वैसे ही लोग जो पहले भी थे...
क्या करूँ ?
नजरें ही फिरा लूँ
नज़ारा ही दूर रहे नजरों से
और मैं साँस लूँ बेफिक्र
कि ज़िंदगी तो यूं ही चलती है...
क्या करूँ ?
.
.
अब अगर ये प्रश्न है
तो बेहतरी के लिए
बेहतर यही है कि
खुद ही बदल जाऊँ....
रजनीश (19.07.2013)
9 comments:
क्या न कर जायें, मन सदा ही चाहता है। जब सब संभव नहीं हो पाता है, तो सब छूटा सा लगता है, नैराश्य का उदय संभवतः वहीं होता है। जो कर सकें, उसी में संतुष्ट रहें, सब करना तो संभव ही नहीं है।
यह प्रश्न मन को मथते रहेंगे ..... संवेदनशील रचना
खुद को ही बदलना होगा...नई चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करने के लिए..मार्मिक रचना !
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
बहुत उम्दा,सुंदर संवेदनशील सृजन,,,
RECENT POST : अभी भी आशा है,
bilkul sahi kaha ki ab suruwat karni hogi......speechless abhivaykti....
सार्थक रचना
inner dilemma and turmoil is well reflected.. !!
Aaj kal ki kavita me shabd thoose kyu jaate hain....chhand bun ne ki shakti kaha gayi pata nahi, ya shayad ham utna parisram hi nahi karna chaahte... :(
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