सुबह की मंद बयार में
ओस के बिछौने पे खड़े होकर
कोमल पंखुड़ियों से छनकर आती
मीठी धूप में नहाना
कितना अच्छा लगता है
और यही धूप पेड़ों के सहारे
जब ऊपर चढ़ती और बढ़ती है
कसैली हो जाती है
झुलसाने लगती है
वक्त की आंच के मानिंद
...
लू के थपेड़ों में
घने दरख्त की ठंडी छाँव
जुल्फों के साये का सुकून देती हैं
गुलाबी ठंड में हो जाती है
धीमी कुछ आंच जख्मों की
पर पहाड़ों से उतरते-उतरते
ये ठंड काली हो जाती है
हड्डियाँ कंपा देती है
और खून जमा देती है
दब जाती है ज़िंदगी
बर्फ की मोटी परतों के तले
....
माँ की तरह
ढेर सारा पानी लिए
बरसते हैं बादल
प्यासी धरती की खातिर
सींच देते हैं जमीन
फुहारें ले आतीं हैं
चाहतों का मौसम
सपनों की बारिश का आलम
और कभी बरसते-बरसते
इतना बरस जाते हैं बादल
कि आ जाता है सैलाब
जो डुबो कर सब कुछ
बहा ले जाता है सारे सपने
....
और ऐसा ही कुछ
प्यार के साथ भी है ...
......रजनीश (23.10.2013)
3 comments:
Beautiful poem!...Amazing words..
एक अनुकूल अनुभव, सुन्दर झोंका सा।
nice
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