ना बदली वो राहें पता मंजिल का भी वही
फिर क्यूँ भटका हुआ इन्सान नज़र आता है
कोई नजरों में रहके भी नजरों से दूर रहे
ना होकर भी नजरों में कोई पास नजर आता है
दिल का आईना भी कितना ज़ालिम होता है
जब भी देखूं अपना चेहरा शैतान नज़र आता है
कोहरे की परत भी क्या क्या गुल खिलाती है
उगता गर्म सूरज भी चाँद नजर आता है
बड़ी उम्मीद थी जिससे तलाशा जिसे हर कहीं
खड़ा दुश्मन की तरह वो दोस्त नज़र आता है
है ये किस्मत या फितरत या ईन्सानी तादाद का असर
वो कीड़ों की तरह मरता कौड़ियों में बिकता नज़र आता है
तू मुझमें है मै तुझमें हूँ जो मुझमें वो ही तुझमें
क्यूँ चेहरे में तेरे फिर कोई और नज़र आता है
..........रजनीश (25.10.2015)
1 comment:
राहें भी वही, मंजिल भी, फिर भी चलना कठिन ही लगता है. सुंदर नज़्म.
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