शहर की दीवारों
पर पड़े छींटे
गवाह हैं होली से हुई मुलाक़ात के
जो गुजरी हाल ही, मेरे शहर की सड़कों से होकर,
कल मै था एक सड़क पर,
जिसके सीने पर भी
दिखे कुछ सुर्ख लाल निशान,
होली ने कहा मेरे तो नहीं,
ये गवाह निकले
एक मुसाफ़िर की मौत के,
जिसका सफ़र सड़क पर
ही ख़त्म हो गया था,
और एक पल में ही शुरू कर लिया था
उसने एक नया सफ़र,
सड़क ने कहा,
मुझे तो इस रंग से कोई प्यार नहीं,
मेरा होली से कोई रिश्ता नहीं,
न ही कोई प्यास मुझे,
ये तुम्हारा अपना
तुम लोगों की ही अंधी दौड़
और पागलपन का शिकार है,
क़िस्मत को क्यूँ खड़े करते हो कटघरे में,
ये तो वक्त को पीछे छोड़
आगे निकलने की कोशिश का नतीजा है,
मैं सड़क पर बढ़ता रहा ,
और आगे भी लाल धब्बे मिलते रहे
मैं सोचता रहा कि
आखिर सड़क की बात
पर हम गौर क्यूँ नहीं करते ?
...रजनीश (24.03.11)
5 comments:
बहुत मार्मिक लिखा है । सड़क की बातें गौर तलब हैं ।
मैं सोचता रहा कि
आखिर सड़क की बात
पर हम गौर क्यूँ नहीं करते ?
बहुत अच्छी लगी आपकी कविता .
रंगपंचमी की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ...
सड़क का संवाद ....विचारणीय लगा ...बहुत सुंदर
ये तुम्हारा अपना
तुम लोगों की ही अंधी दौड़
और पागलपन का शिकार है,
क़िस्मत को क्यूँ खड़े करते हो कटघरे में,
ये तो वक्त को पीछे छोड़
आगे निकलने की कोशिश का नतीजा है,
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति.
सोचने पर मजबूर कर रही है.
सलाम.
क़िस्मत को क्यूँ खड़े करते हो कटघरे में,
ये तो वक्त को पीछे छोड़
आगे निकलने की कोशिश का नतीजा है,
सोचने को मजबूर करती उम्दा कविता.
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