[1]
क्यूँ ढूंढते हो
गॉड पार्टिकल
कृत्रिम वातावरण में,
जबकि गॉड तो
हर पार्टिकल में है ।
[2]
तुम खोज लेते हो
कोई एक नेता
क्यूंकि तुम नहीं चाहते
खुद कुछ करना
और वक्त भी कहाँ तुम्हारे पास !
[3]
तुम कहते रहते हो
खत्म हो जाएगी दुनिया
क्यूंकि तुम्हें चाहिए
कोई बड़ा सा डर
जो तुम्हारे छोटे-छोटे
डर निगल जाये ।
[4]
तुम भ्रष्टाचार
के जिस पेड़ की
टहनियाँ जंतर-मंतर पर
काट रहे थे
उसकी जड़ें तुम्हारे
आँगन तक आई हैं ।
[5]
महापुरुष का
उत्तराधिकारी नहीं होता
क्यूंकि
महापुरुष नाम का
कोई पद नहीं होता ।
...रजनीश (29.04.11)
11 comments:
सभी क्षनिकाएं बहुत गहन ..ये दोनों खास लगीं ---
तुम कहते रहते हो
खत्म हो जाएगी दुनिया
क्यूंकि तुम्हें चाहिए
कोई बड़ा सा डर
जो तुम्हारे छोटे-छोटे
डर निगल जाये ।
[4]
तुम भ्रष्टाचार
के जिस पेड़ की
टहनियाँ जंतर-मंतर पर
काट रहे थे
उसकी जड़ें तुम्हारे
आँगन तक आई हैं ।
वाह! कितनी सच्ची और तीखी चोट करती हैं आपकी छोटी छोटी कवितायें, सभी एक से बढ़कर एक !
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (30.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
महापुरुष का
उत्तराधिकारी नहीं होता
क्यूंकि
महापुरुष नाम का
कोई पद नहीं होता ।
बिल्कुल सही बात ……………और सारी ही गहरा प्रहार करती हैं……………बेहद शानदार्।
bhut sahi kaha apne...
तुम खोज लेते हो
कोई एक नेता
क्यूंकि तुम नहीं चाहते
खुद कुछ करना
और वक्त भी कहाँ तुम्हारे पास ...
Sateek ... saarthak kshanika hai ye ...
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 03- 05 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
महापुरुष का कोई पद नहीं होता ..
छोटे छोटे डर को निगलने के लिए एक बड़े डर का सहारा ...
कितना गहन सत्य है एक-एक पंक्ति में !
तुम कहते रहते हो
खत्म हो जाएगी दुनिया
क्यूंकि तुम्हें चाहिए
कोई बड़ा सा डर
जो तुम्हारे छोटे-छोटे
डर निगल जाये
॥ मत्स्ये पलायिते निर्विण्णो धीवरो भणति मे धर्मः भविष्यति इति ॥
मछली हाथ से निकल जाने पर मछुआरा कहेता है,"धर्म हुआ।" भय का भी कुछ ऐसा ही है..!!
बहुत सुण्दर रचना।
मार्कण्ड दवे।
http://mktvfilms.blogspot.com
पाँचों क्षणिकाएं बेजोड़ ......स्वयं को सार्थक अभिव्यक्ति देतीं क्षणिकाएं
तुम भ्रष्टाचार
के जिस पेड़ की
टहनियाँ जंतर-मंतर पर
काट रहे थे
उसकी जड़ें तुम्हारे
आँगन तक आई हैं ।
....बहुत सटीक और सार्थक क्षणिकायें...सभी बहुत सुन्दर .
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