क्या हो गया
कहाँ जा रहे हम
असहिष्णुता के रास्ते
अहंकार रथों पर
सब कुछ अपने कब्जे में करते
पूरे रास्ते को घेर चलते
अपनी सड़क
अपने कदम
थोड़ी भी जगह नहीं
औरों के लिए
अपनी ढपली
अपना राग
अपनी सोच
अपनी बात
अपने समीकरण
अपना दर्शन
अपना विचार
अपनी बिसात
आत्म मुग्ध
आत्म केन्द्रित
कदम कदम
बस अपना स्वार्थ
कदम कदम
छिद्रान्वेषण
कदम कदम
आलोचना
कदम कदम
ईर्ष्या
कदम कदम
प्रतिस्पर्धा
क्या यही है सच
क्या यही है सही
क्या रास्ते होते ही हैं
अकेले और बस खुद के लिए
क्या यही है प्रारब्ध
क्या यही है नियति
क्या कोई और रास्ता नहीं ?
इसी रास्ते पर
यह भी लिखे देखा
स्वतन्त्रता /प्रगति /उन्नति
विश्वास नहीं होता !
शायद पत्थर
गलत लगा गया कोई
इतना संकरा कंटीला रास्ता
कैसे जुड़ा हो सकता है
इन शब्दों से ......................
रजनीश ( 13.02.2014)
7 comments:
लाजबाब,बेहतरीन अभिव्यक्ति ...!
RECENT POST -: पिता
थक कर हारता सा मन ...जैसे शब्दों मे झर आई है मन की पीड़ा !!
कर्मण्ये वाधिकारसते ........
यही श्लोक याद आया ...!!
शुभकामनायें ।
वाह !
स्वतन्त्र और स्वराज।
आज लोग आत्मकेंद्रित हो गए हैं
सोचने को विवश करती सुन्दर रचना !
जीवन जितना आत्मकेंद्रित होता जा रहा है उतना ही दुःख भी बढ़ता जा रहा है..मार्मिक पंक्तियाँ !
अद्भुत....सार्थक भाव
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