एक वक्त
ऐसा भी होता है
जब दिन गुजरता जाता है
घड़ी की सुई की तरह
बिना ठहरे कहीं भी कुछ घड़ी
बस कोल्हू की मानिंद
ज़िंदगी की सुई एक दायरे में
घूमती चली जाती है
जैसे पंखों को फैलाये
बिना फड़फड़ाए
तैरता हो एक बाज हवा मेँ
कुछ ठहरता नहीं
पर ज़िंदगी ठहर जाती हो जैसे
एक ऐसा ठहराव
जिसमें सुकून नहीं
जिसमें आराम नहीं
जिसमें पड़ाव नहीं
जिसमें कुछ रुकता नहीं
और फिर ये वक़्त
एक आदत बन जाता है
.......रजनीश (15.04.15)
4 comments:
जब व्यक्ति उम्र की ढलान पर होता है तब यह हालत विशेष रूप से हो जाती है , अच्छी यथार्थ को व्यक्त करती रचना
सुंदर प्रस्तुति. एक यथार्थवादी रचना.
रचना दीक्षित
इसी आदत मिएँ ये जिंदगी यूँ ही गुज़र जाती है एक दिन ...
सुन्दर रचना
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