Wednesday, October 28, 2015
कुछ क्षणिकाएँ..
[1]
है आँखों में नमी, हुई मानसून में कमी अल-निनो की करतूत, है सूखी सी जमीं
[2]
आगे बढ़ो मत भूलो हुए बापू शास्त्री यहीं कुछ करो विरासत इनकी बिखर जाए ना कहीं
[3]
हरी सब्जियाँ खाय के क्यूँ मन ही मन खुश होय रंग पेस्टीसाइड भरे जो इनमें जानलेवा होय
[4]
तिनके-तिनके बना आशियाना जिस जमीं को अपना जाना छोड़ना इक पल में वही ठिकाना इक मौत है "रिफ्यूजी" हो जाना
[5]
हर सच बताना जरूरी नहीँ है हर दर्द बताना जरूरी नहीं है मीडिया की भी है बड़ी जिम्मेदारी हर खबर दिखाना जरूरी नहीं है
[6]
प्याज के आंसू रोते थे अब दाल ने गलना बंद कर दिया जेब और खर्च की जंग छिड़ी अब दिमाग ने चलना बंद कर दिया
[7]
कभी चुप्पी चीखती है हर हल्ले में शोर नहीं होता कभी रात जगाती है हर किनारा छोर नहीं होता
...रजनीश (27.10.2015)
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5 comments:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29 - 10 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2144 में दिया जाएगा
धन्यवाद
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर प्रस्तुति
हर सच बताना जरुरी तो नहीं.
लेकिन मीडिया की बात ही कुछ और है. वह तो उसे तब तक दिखाते हैं जब तक आप का खून न खौल जाये.
बहुत ही बेहतरीन क्षणिकाओं की प्रस्तुति। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
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