जब भी अपने में झाँका है,
पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;
कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,
जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी
बुनते है जाल सभी,
बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,
तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,
इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,
इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;
सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....
7 comments:
Beautiful, breaking and bonding of relationships in very beautiful words.
jis din yah raas hat jaye, mann ki uljhan door ho jaye
बहुत ही सुंदर पंक्तिया....
हम सब एकदूसरे से जुड़े है
सुन्दर रचना
आभार
बहुत सुन्दर ख्याल्।
बंधन का बहुत सुंदर चित्रण ! भगवान बुद्ध कहते हैं कि इन बन्धनों को हमने कैसे बांधा है यह दे खकर फिर उसका विपरीत करते हुए इन्हें खोलना है...
आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
एक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !
Post a Comment