Wednesday, September 28, 2011

एक गीली नज़्म

021209 022
कई बार की थी
कोशिश कि पढ़ सकूँ 
उनकी आँखों में लिखी
एक नज़्म
पर नज़रें हर बार
बस देख सकीं 
उन शब्दों की सूरत
और पढ्ना ही ना हुआ
वो नज़्म आज भी
रहती है मेरे सिरहाने
पर जो लिखा  है
कभी पढ़ा ना गया
पहचान ना सका शब्दों को
हाँ  जब भी छुआ उन्हें
वो नम ही मिले हमेशा
और उनके  पार मिली
वही आँखें
वो कागज़ भी कभी
पुराना ना हुआ
...रजनीश (28.09.11)

18 comments:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...




सचमुच गीली नज़्म …
बहुत ख़ूब !


आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

-राजेन्द्र स्वर्णकार

विशाल said...

गीली नज्में आंसू सुखा देती हैं.

बहुत खूब लिखा है आपने.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कोमल से एहसास से भीगी सी नज़्म ..

Deepak Saini said...

सुन्दर कविता

रश्मि प्रभा... said...

wo kagaz purana hoga bhi nahi...

kanu..... said...

sach me geeli si najm.sunadar

Rajesh Kumari said...

bahut pyaari komal si najm.

vandana gupta said...

भीगे अहसासो की भीगी नज़्म्।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

कुछ शब्द हमेशा नाम ही मिलते हैं ... सुन्दर रचना !

mridula pradhan said...

bahot khoob......

Anita said...

वाकई शब्दों के पीछे की कहानी पढ़ने की नहीं महसूस करने की बात है जो नमी के रूप में अपने निशान छोड़ गयी है... सुंदर अहसासों से सजी नज्म..

रेखा said...

खुबसूरत एहसास ..

induravisinghj said...

सीधा दिल में उतरती,मुस्कान लाती खूबसूरत पंक्तियां...

प्रवीण पाण्डेय said...

भावों में आस का नयापन बना रहा।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

दिगम्बर नासवा said...

इन गीली नज्मों को पढ़ना आसान कहाँ होता है ... लाजवाब रचना है ...

Udan Tashtari said...

बेहतरीन ...गीली नज़्म...

सागर said...

sundar prstuti...

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....