Sunday, March 1, 2015

अच्छे दिन की आस


अच्छे दिन की आस में बीत गए कई माह
आओ खोजें उन्हें लगता भूल गए हैं राह

उठती-गिरती पेट्रोल की कीमत साँपसीढ़ी का खेल
अब पैदल चलना सीखो छोड़ो मोटर गाड़ी रेल  

कहाँ बचाएं कहाँ लगाएँ जो थोड़ा सा अपने पास
वही पुराना दर्द लिए देखो भटके मिडिल-क्लास

सपनों के बाजार में लुट गई जेब हम ढेर
सौदागर राजा बने अब तो नहीं हमारी खैर

....रजनीश ( 01.03.15)

4 comments:

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति

मनोज कुमार said...

बिल्कुल खैर नहीं है जी।

Anita said...

बढ़िया कटाक्ष..

dr.mahendrag said...

कौन से अच्छे दिन?किसके अच्छे दिन?

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....