हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
बहुत हो गया कलुषित जीवन,
अब करो धवल ऊर्जा संचार ।
सुबह, दुपहरी हो या साँझ,
फैला है हरदम अंधकार ।
रात्रि ही छाई रहती है,
नींद में जीता है संसार ।
तामसिक ही दिखते हैं सब,
दिशाहीन प्रवास सभी ।
आंखे बंद किए फिरते हैं...
निशाचरी व्यापार सभी ।
रक्त औ रंग में फर्क न दिखे,
भाई को भाई न देख सके ।
अपने घर में ही डाका डाले,
सहज कोई पथ पर चल न सके ।
हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
भेजो मानवता किरणों में,
पशुता से व्याकुल संसार ।
....रजनीश (15.01.11) मकर संक्रांति पर
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