हर रोज़ ये गुनाह मैं सौ बार करता हूँ,
वो नहीं इस रास्ते , क्यूँ इंतजार करता हूँ...
सपना था कि कभी मिलके चलेंगे दो कदम,
हँस के कहा था उसने, क्यूँ एतबार करता हूँ ...
आँखों में लिखी बातें कभी जुबां की हो न सकी,
हूँ आईने में अब खड़ा, क्यूँ इज़हार करता हूँ....
दीवारों पे बसाये मैंने मुहब्बत के अफ़साने,
न लगी खबर उनको , क्यूँ इश्तहार करता हूँ...
पाया है ज़ख्म जब भी गुजरा उनकी गलियों से,
उस सितमगर को क्यूँ , दोस्तों में शुमार करता हूँ ...
आवाज गुम जाती है, फासले की दुनियाँ में,
पास वो न आए कभी , क्यूँ इसरार करता हूँ...
बताते बताते , छुपाया है हरदम,
पर जताने की ये कोशिश , क्यूँ हर बार करता हूँ...
हूँ न उनकी निगाहों में, न उनके ख़यालों में,
पर हर सूरत मेँ उनका क्यूँ दीदार करता हूँ ...
होगा उनकी किताबों में संगीन मेरा ज़ुल्म,
पर मैं आदमी हूँ ,आदमी से प्यार करता हूँ ...
.....रजनीश (31.01.2011)
3 comments:
भाई रजनीश जी ,
हर शेर उम्दा .....
बहुत अच्छा लगा पढ़कर
बहुत सही!!!बहुत बेहतरीन!!
sunder rachna
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