आज सुबह का मौसम
कितना सुहाना था !
किसी कवि की साकार कल्पना की तरह,तभी
अचानक बादलों ने सूरज को ढका
और बारिश शुरू हो गयी थी...
खिड़की से झाँककर देख रहा था मैं ,
बड़ी बड़ी बूंदें /
बरबस अपना हाथ बढ़ा, खिड़की से बाहर
हथेली पर थाम लिया मैंने बूंदों को ;
इच्छा हुई और चख लिया था ...
स्वाद का खारापन , अचंभित करने वाला था ,
तभी दिखी बिजली की एक चमक और गूँजा बादल का क्रंदन,
फिर ,मैंने पूछ ही लिया बादल से इस खारेपन का कारण;
उसने बताया ,
" ए दोस्त,
मैं एक अकेला बादल ,
छोटा सा, बरस जाना चाहता हूँ
धरती पर ,
लेकिन कितना घिरा हुआ हूँ मैं,
जैसे कोई वजूद ही नहीं मेरा ...
और कई बादल घेरे हुए मुझे;
उधर से आते काले घने - संकट के बादल हैं ,
और इधर उमड़ते घुमड़ते ये भीमकाय ...
दरअसल सामान हैं -जलाने का ;
वो सामने धरती पर छा रही घटा - भय और आतंक की,
और उन, दूर तक दिखते दुख के बादलों से
तो तुम वाकिफ होगे,
जो हटा सके इन्हे ऊपर से धरती के ,
मेरा अस्तित्व ही धरती से है ,
पर मैं और मेरी संगिनी, असहाय देखते हैं सब,
और सिवा आँसू के कुछ दे नहीं पाते"
मैं सुन रहा था
बादल को,
पता नहीं कब
चल पड़े थे आंसू ,
मेरी आखों से /
हथेली पर मौजूद खारी बूंदों से उनके मिलन
से जैसे भंग हुई मेरी तंद्रा ,
और फिर देखा मैंने बाहर खिड़की से,
बारिश अब भी बदस्तूर जारी थी .......
......रजनीश (20.08.1992)
1 comment:
थोड़ी सी काट-छांट और कुछ जोड़कर ये पुरानी रचना पेश की है...
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