सोचता हूँ,
क्यों चाहूँ तुम्हें,
आखिर क्यों ?
चाहत , ये क्या है ?
पूछा जिंदगी से ...
तुझे कुछ पता है ?
हँस के कहा उसने,
इसी बात से परेशा है ?
बस इन चाहत के फूलों को हटा दे,
और इन फूलों की बगिया को मिटा दे ...
उखाड़ फेंका मैंने उन्हे
और ज़िंदगी को निहारा
पर उस जगह कुछ और ही समा था
खाली जमीन और खुला आसमाँ था ...
बस कुछ टुकड़े जिंदगी के बिखरे हुए थे....
टूटी डालों और पत्तों संग जमीं पर पड़े थे
उखड़ती साँसों से उसकी आवाज आई ,
हँसते हुए अपनी दास्तां सुनाई ...
बिखरी हूँ इनमे मैं कैसे दिखूंगी
मैं जन्मी थी इनमे और इन संग मरूँगी ...
.....रजनीश
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