Friday, May 6, 2011

गर्मी

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उतरने लगी है किरणें
सूरज से अब आग लेकर
जबरन थमा रहीं हैं तपिश
हवा की झोली में ,
सोख रहीं हैं
हर जगह से  बचा-खुचा पानी
छोड़  कर अंगारे
जमीं  के हाथों में ,

पर कलेजे में  है मेरे एक ठंडक
हूँ मैं संयत, मुझे एक सुकून है ...
क्यूंकि किरणें बटोरती हैं पानी
छिड़कने के लिए वहाँ,
जिंदा रहने को कल
बोएंगे हम कुछ बीज जहां...
सींचने जीवन,  असंख्य नदियों में
किरणें बटोरती हैं पानी...

मैं  बस बांध लेता हूँ
सिर पर एक कपड़ा,
घर में  रखता एक सुराही ,
जेब में  एक प्याज भी ,
और  करने देता हूँ  काम
मजे से किरणों को,

सोचता हूँ ,मेरे अंदर 
सूखता एक और पानी है
जो काम नहीं  इन किरणों का
फिर वो कहाँ उड़ जाता है ?
दिल की दीवारों और आँखों को
चाहिए बरसात भीतर की
जो ज़िम्मेदारी नहीं इन किरणों की
इसका इंतजाम  खुद करना होगा
वाष्पित करना होगा घृणा, वैमनस्य, दुष्टता ...
तब  प्रेम भीतर बरसेगा...
...।रजनीश (06.05.2011)

8 comments:

विभूति" said...

bhut khubsurti se garmi ko rachna me dhala hai...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वाष्पित करना होगा घृणा, वैमनस्य, दुष्टता ...
तब प्रेम भीतर बरसेगा...

किरणों से एक गहन रचना का जन्म ...अच्छी प्रस्तुति

Anupama Tripathi said...

इसका इंतजाम खुद करना होगा
वाष्पित करना होगा घृणा, वैमनस्य, दुष्टता ...
तब प्रेम भीतर बरसेगा...

बहुत सुंदर भाव ..सकारत्मक सोच से भरी कविता ..
बधाई आपको

vandana gupta said...

इसका इंतजाम खुद करना होगा
वाष्पित करना होगा घृणा, वैमनस्य, दुष्टता ...
तब प्रेम भीतर बरसेगा...


सच कहा……………कुछ काम स्वंय करने पडते हैं नव सृजन तभी संभव है।

Anita said...

बहुत सुंदर, आपने भीतर की वर्षा का उपाय भी बताया और बाहर कैसे शीतल रहा जाये इस लू में वह भी, बधाई !

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मैं बस बांध लेता हूँ
सिर पर एक कपड़ा,
घर में रखता एक सुराही ,
जेब में एक प्याज भी ,
और करने देता हूँ काम
मजे से किरणों को,

स्वीकार्यता की सोच ...कितनी सकारात्मक है...बहुत बढ़िया

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'वाष्पित करना होगा घृणा,वैमनस्य , दुष्टता ....

तब प्रेम भीतर बरसेगा .....'

.......................सुन्दर भावों की सार्थक रचना

Utpal Kant Mishra "NaddaN" said...

acchi abhivyakti

badhai

Utpal
http://utpalkant.blogspot.com

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