Tuesday, May 10, 2011

माफ़ी

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किया था मना मैंने
पर ये जिद थी तुम्हारी ,
लाइन दर लाइन तुम्हें
लो उतार दिया पन्ने पर,
छुपाएँ कुछ तुम्हें
न ऐसी नीयत हमारी...

अब कहते हो
न रदीफ़ है  न  काफ़िया,
न जाने ये क्या लिख दिया..
टेढ़ी-मेढ़ी अधूरी  लाइनें
जैसे कचरे का ढेर
कोई रख दिया...

मैंने कहा  -
लिखा है ,तुम्हें ही
सादगी, संजीदगी  से, ..
और मांग ली माफ़ी
मैंने अपनी ज़िंदगी से ...
...रजनीश (10.05.2011)

9 comments:

विभूति" said...

मैंने कहा -
लिखा है ,तुम्हें ही
सादगी, संजीदगी से, ..
और मांग ली माफ़ी
मैंने अपनी ज़िंदगी से ... bhut khubsurat galti hai aur usse bhi khubsurat maafi hai... very nice panktiya...

Shah Nawaz said...

वाह! अहसासों को बहुत ही ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है आपने... बहुत खूब!

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया लिखा है सर!

vandana gupta said...

मैंने कहा -
लिखा है ,तुम्हें ही
सादगी, संजीदगी से, ..
और मांग ली माफ़ी
मैंने अपनी ज़िंदगी से .


फिर अब कैसा गिला कैसा शिकवा………………बहुत सुन्दर अल्फ़ाज़्।

Anita said...

वाह, क्या मासूमियत है, खुद ही जिए चले जाते हैं और खुद... सुंदर अंदाज !

Udan Tashtari said...

न रदीफ़ है न काफ़िया- बस्स!! सच्चे मन के भाव हैं.

Amit Chandra said...

बहुत खुबसुरत रचना। जिसके लिए लिखा उसे इसकी पहचान भी तो हो। आभार।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मैंने कहा -
लिखा है ,तुम्हें ही
सादगी, संजीदगी से, ..
और मांग ली माफ़ी
मैंने अपनी ज़िंदगी से ...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं.... सरल शब्द गहन भाव

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही खूबसूरत ..आभार

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....