[1]
जो चीजें थीं कभी सस्ती
होती जा रही हैं वो महँगी
जो कभी होती थीं अनमोल
गली-गली बिकती हैं सस्ते में...
[2]
घड़ी तो अब भी है गोल
गति भी नहीं बदली उसकी
फिर उसी दायरे में चलते-चलते
समय कैसे कहाँ कम हो गया ?
[3]
दिन में तेज धूप , धूल भरी आँधी
और शाम को बदस्तूर बारिश
दिन भर एक ही मौसम से ...
जैसे कायनात ऊब सी गई है
[4]
एक , फिर वापस आने चले गए
और एक फिर से वापस आ गए
खून हमारा जला ,वोट हमने दिया
और हम वहीं के वहीं रह गए ...
[5]
बनाया टीवी और अखबार
ताकि कन्फ़्यूज़ ना हो हम यार
ये पल पल कर चीत्कार बताएं
हमको , नरक है सब संसार ...
...रजनीश (16.05.11)
7 comments:
घड़ी तो अब भी है गोल
गति भी नहीं बदली उसकी
फिर उसी दायरे में चलते-चलते
समय कैसे कहाँ कम हो गया ?... bahut hi badhiyaa
चौथा पैरा बहुत अच्छा लगा सर!
सादर
pooree kavita khoob maza de gayee.
घड़ी तो अब भी है गोल
गति भी नहीं बदली उसकी
फिर उसी दायरे में चलते-चलते
समय कैसे कहाँ कम हो गया ?
सच आज किसी के पास वक्त नहीं .... सारी क्षणिकाएं बहुत अच्छी लगीं
सभी क्षणिकायें बहुत ख़ूबसूरत...दूसरी और तीसरी रचनाएँ लाज़वाब..
एक , फिर वापस आने चले गए
और एक फिर से वापस आ गए
खून हमारा जला ,वोट हमने दिया
और हम वहीं के वहीं रह गए ...
wah kya likha he apne ,
bhut badiya likha hai apne...
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