Tuesday, May 31, 2011

कार

IMAG0604
चलते-चलते थक कर
किनारे सड़क के
रुकी इक कार से
टिककर कुछ सांसें लेता  हूँ
माथे पर उभर आई हैं बूंदें पसीने की...
पोंछते-पोंछते लगता है
जिस कार का सहारा लिया है
वो जैसे मेरी ही ज़िंदगी है
एक जगह पर "पार्क"
सड़क पर आने के लिए
कुछ सांसें इकठ्ठा करती ...
कार की तरह ही
एक छोटी सी नियत परिधि में
सफर तय करती ज़िंदगी
एक नियत क्रम में
जैसे एक खूँटे से बंधी ...
कितना सीमित कर लिया है
अपनी ज़िंदगी को इन रस्तों में
कितना थोड़ा सा हूँ मैं ...

फिर चल पड़ता हूँ
इस बार एक नई दिशा में
यही सोचकर कि शायद
कुछ और खुल जाऊँ
कुछ और खिल जाऊँ
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊँ
कुछ और संभावनाएं
कुछ नई शुरुआत
कुछ और सड़क और शिखर खोजूँ
क्यूंकि नहीं परखा है सीमाओं को
बहुत थोड़ा सा ही
जाना है और जिया है
खुद को अब तक ...
...रजनीश (30.05.11)

12 comments:

विभूति" said...

bhut khub likha hai apne...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जितना जानो लगता है अभी तो कुछ भी नहीं जान पाया...जितना चलो लगता है अभी तो एक कदम भी नहीं...

रश्मि प्रभा... said...

her subah yahi prakriya , yahi urja , yahi nai aasha ......nirantarta bani rahti hai kuch saansen lekar

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया लिखा है सर!

सादर

Anonymous said...

aapka hamare blog par aane aur hamare samarthk banne par haardik dhanyawaad....

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर .... स्वयं को जानने को पूरा जीवन भी कम लगता है......

Jyoti Mishra said...

beautiful personification of car !!!

Anita said...

यही सोच कर कि शायद
कुछ और खुल जाऊं
कुछ और खिल जाऊं
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊं

बहुत सुंदर भाव ! आभार !

vandana gupta said...

ये ही जानना इतना आसान नही है।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

जिंदगी के संघर्ष और कशमकश की तुलना कार से .....बहुत ही भावपूर्ण रचना

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

कार के बहाने जीवन के विविध पक्षों को कुशलता से उभारती रचना।

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विश्‍व तम्‍बाकू निषेध दिवस।
सहृदय और लगनशीन ब्‍लॉगर प्रकाश मनु।

Saru Singhal said...

Really nice words, can relate to your poem.

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....