Thursday, July 26, 2012

मैं जानता हूँ सब कुछ, फिर भी ...


मैं जानता हूँ
मेरी चंद ख़्वाहिशों के रास्ते
नक़्शे पर दिखाई नहीं देते,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ सपनों के घरों का पता
किसी डाकिये को नहीं,
मैं जानता हूँ
मेरे चंद अरमानों का बोझ
नहीं उठा सकते मेरे ही कंधे,
मैं जानता हूँ
मेरी तन्हाई मुझे ही
नहीं रहने देती अकेले ,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ शब्दों को
आवाज़ मिली नहीं अब तक,
मैं जानता हूँ
राह पर चलते-चलते
बहुत कुछ पीछे छूटता जाता है,
मैं जानता हूँ
कुछ लम्हे निकल जाते हैं
बगल से बिना मिले ही,
मैं जानता हूँ
बरस तो जाएगी पर
बारिश नहीं भिगोएगी कुछ खेतों को
मैं जानता हूँ ये सब कुछ,

मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगाए हैं कुछ बीज मैंने
फिर भी करता हूँ कोशिश मिलने की हर लम्हे से,
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगा हूँ बटोरने रास्ते से हर टुकड़ा
फिर भी सँजोये रहता हूँ अनकहे शब्दों को जेहन में  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी कहता रहता हूँ तन्हाई से दूर जाने को
फिर भी देता हूँ डाकिये को अरमानों के नाम कुछ पातियाँ  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
पर अक्सर नक्शों में ढूँढता हूँ
सपनों के वो रास्ते ...

मैं जानता हूँ
कि आस है मुझे कुछ करिश्मों की ….
.....रजनीश (26.07.12)

Wednesday, July 18, 2012

घूमता पंखा

मेज पर बिछे काँच में
देखता हूँ घूमते पंखे की परछाई
नहीं दिखती  थकान मुझे
उसके चेहरे पर एकबारगी से
पर देखा जब गौर से  तो
हुआ एहसास उसकी अधेड़ उम्र का

आती है कुछ आवाज़ भी
जब वो घूमता है,
शायद कुछ जंग और कोई पुर्जा है टूटा,
वक्त की कुछ खरोंचें
और उखड़ता पेंट बदन से,
अब  नहीं रही वो चमक
नयी ना रही अब वो छत 
अब परछाईं साफ नहीं देख पाता
मेज पर लगा काँच भी,
पंखे का पुरानापन
काँच में नज़र नहीं आया
एकबारगी से,
पर तन्हा बैठे बैठे
उसके पुरानेपन से
आज हो ही गई मुलाक़ात

दरअसल हवा लेते लेते
कभी ध्यान ही नहीं गया
पंखे की तरफ,
कितनी गर्मियाँ जी गया
कितना पसीना सुखाया ,
छत से उल्टे लटके और
रात दिन मेरे लिए
घूमते इस पंखे
के नीचे बैठ
ज़िंदगी के कितने पन्ने
रंग लिए मैंने


अहमियत ही क्या है पर इसकी
जिस दिन नहीं मिलेगी हवा
बदल दूँगा इसे...
मुझे हवा चाहिए
ये पंखा नहीं

और मैं भी उस पंखे से ज्यादा
कुछ नहीं ...
.....रजनीश (18.07.12)

Wednesday, July 11, 2012

दो दुनिया का वासी

मैं हूँ
दो  दुनिया  का वासी

एक जहां  है सभी असीमित
दूजे में जीवन लख-चौरासी

मैं हूँ दो  दुनिया  का वासी ...

एक जहां तुमसे मिलता हूँ
सांस जहां हर पल लेता हूँ
जिसमें मेरे रिश्ते-नाते
रोज जहां चलता फिरता हूँ

दूसरी  सपनों की है दुनिया
जिसमें मेरा मन रहता है
उसकी देखा-देखी की कोशिश
इस दुनिया में तन करता है

मैं हूँ
दो  दुनिया  का वासी ...

सपने गर अच्छे होते हैं
इस जहान में खुश रहता हूँ
दर्द वहाँ का मुझे गिराता
इस  दुनिया  में दुख सहता हूँ

जो सपनों की दुनिया में  बुनता
और यहाँ जो कुछ मिलता है
अंतर जो पाता हूँ  इनमें
वही राह फिर तय करता है 

मैं हूँ
दो  दुनिया  का वासी

एक जहां है  सपने रहते
दूजे में काबा - कासी

मैं हूँ
दो  दुनिया का वासी...
.......रजनीश ( 11.07.2012)

Sunday, July 8, 2012

दिन का बुलावा

हर दिन है
एक निमंत्रण
एक यात्रा का
हर दिन
बढ़ाकर हाथ
कहता है चलो
कभी नींद की ख़ुमारी में
कभी आलस
और कभी
सड़कों पर होते हल्ले में
दब जाती है आवाज़ दिन की
और बीत जाता है
मुझे पुकारता पुकारता
एक दिन

अगर चलूँ
तो रास्ते ही रास्ते ,
अगर रुकूँ
तो उगने लगती हैं दीवारें
फिर चढ़कर और उचककर
इन्हीं दीवारों पर
करता हूँ कोशिश
कि थाम लूँ हाथ
एक नए दिन का

दीवारें मोटी मोटी
पर कोई न कोई कोना
भुरभुरा पाया है हमेशा
ना रुकता और सुन लेता दिन की
तो पैदा ही नहीं होती ये दीवारें
पर रास्ते हैं तो दीवारें भी हैं
दिन भी कहता है यही
पर अक्सर दिखाया है उसने
कि   हैं कई रास्ते दीवारों से होकर भी
और दीवारों के पार
भी हैं मिलती हैं सड़कें
कदम गर बढ़ें तो
बनती जाती है सड़क भी

मैं सुनूँ या ना सुनूँ
देखूँ या ना देखूँ
और उसका हाथ थामूँ या ना थामूँ
दिन बुलाता है हमेशा
साथ चलने
ख़त्म नहीं होती दीवारें
राह के रोड़े ख़त्म नहीं होते
कभी ख़त्म नहीं होता दिन का बुलावा
और रास्ते भी ख़त्म नहीं होते
....रजनीश (08.07.12) 

Wednesday, July 4, 2012

कुछ दोहे - एक रपट

ये चित्र - गूगल से , साभार 














महीना आया सावन का
बारिश का इंतज़ार
हम देख आसमां सोचते
कैसी  मौसम की मार

रुपया चला रसातल में
डालर से अति  दूर
क्या खर्चें क्या बचत करें
हालत से मजबूर

महँगाई सुरसा हुई
तेल स्वर्ण हुआ जाए
गाड़ी से पैदल भले
सेहत भी चमकाए

है यू एस में गुल बिजली  
और जन-जीवन अस्त-व्यस्त 
हुआ प्रकृति की लीला से
सुपर पावर भी त्रस्त

गॉड पार्टिकल खोज कर
इंसान खूब इतराए
गर हों तकलीफ़ें दूर सभी
तो ये बात समझ में आए

कहीं पर पब्लिक क्रुद्ध है
कहीं होता गृह युद्ध
इस अशांत संसार को
फिर से चाहिए बुद्ध
......रजनीश (04.07.12)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....