Showing posts with label दिल. Show all posts
Showing posts with label दिल. Show all posts

Sunday, September 30, 2018

कुछ आदतें



वो आए खयालों में
तब भी दूरियाँ बनाए  रखीं
और हम आगवानी  के लिए
अपना घर संवारने लगे 

दिल की आदत सी
बन गई है मसरूफियत
कुछ और नहीं मिला
तो सुकून तलाशने लगे

तय तो यही किया था
नहीं करेंगे कभी याद उन्हें
पर तन्हाई ने सताया
तो उन्हें ही पुकारने लगे

.. रजनीश (30.09.18)

Thursday, June 1, 2017

मन, तू रहता है कहाँ

ओ प्यासे
खो जाने वाले
बिना ही बात 
मुस्कुराने वाले
मन , तू रहता है कहाँ
ओ पगले
रुलाने वाले
जब-तब
मदहोश हो जाने वाले
मन, तू रहता है कहाँ
ओ भंवरे
खूब बहकने वाले
प्यार के गीत पर
चहकने वाले
मन, तू  रहता है कहाँ
ओ झूठे
बहकाने वाले
मंदिर भी
कहलाने वाले
मन, तू रहता  है कहाँ
ओ बच्चे
सब कुछ चाहने वाले
सीमा -रेखाएँ लांघने वाले
मन, तू रहता है कहाँ
मन तू आखिर है कहाँ 
मुझसे मुझे चुराने वाले
बस में मेरी न आने वाले 
भला-बुरा दिखलाने वाले
ओ आईना कहलाने वाले 
सच है गर यारी हमारी 
बता देह में जगह तुम्हारी
आँखे तो बस
देखती हैं प्यार से
कान सुनते बस धड़कन
जुबां सुनाती बातें
हाथ पकड़ते कम्पन
हर अंग तुम्हारी चुगली करता
तू कहीं तो है ये हरदम लगता
मन, तू रहता है कहाँ
ढूंढते-ढूंढते थक गया मैं
भीग गया पसीने में
भेजे से तो बैर है तेरा
क्या रहता है तू सीने में
पर सीने में तो दिल है
उसका जीने से सरोकार
वो तो बस दे रहा
लहू को रफ्तार
वहां कहाँ है
गंगा-जमुना
वहां तो बस रक्त है
जान ही लूंगा
भेद मैं तेरा
अभी भी काफी वक्त है 
  ...........रजनीश  (01/06/17)

Sunday, April 19, 2015

छोटी सी बात


एक हथेली पर
रखे हुए कई बरसों से
ज्यादा भारी हो जाता है
कभी कभी
दूसरी हथेली पर रखा
एक पल

पैरों से टकराते
अथाह सागर से
बड़ी हो जाती है
कभी कभी
अपने भीतर महासागर लिए
कोने से छलक़ती
...एक बूंद

खुले आकाश में
भरी संभावनाओं सी
अनंत हवा से
कीमती हो जाती है
कभी कभी
जीवन की छोटी सी
...एक सांस

बड़े-बड़े
दरख्तों की छांव से
ज्यादा सुकून देता है
कभी कभी
छोटा सा
...एक आँचल

आसमान छूते बड़े
सुनहरे महलों से
ज्यादा जगह लिए होता है
कभी कभी
मुट्ठी बराबर
...एक दिल

ज़िंदगी की बड़ी
उलझन भरी बातों से
बड़ी हो जाती है
कभी कभी
छोटी सी
...एक बात
....रजनीश (19.04.15)

Friday, March 6, 2015

आओ खेलें होली ...

.


रंग लगे भंग चढे
अबीर और गुलाल उड़े
खेलें सब मिलके
रंग भरी होली

ढ़ोल बजे रंग सजे
नाचें सब धूम मचे
खेलें सब मिलके
उमंग भरी होली

रंगों से राह पटे
गुझिया मिठाई बंटे
खेलें सब मिलके
स्वाद भरी होली

प्यार बढ़े बैर घटे
बेरंग ना कोई बचे
खेलें सब मिलके
खुमार भरी होली

हाथों में रंग लिए
दिल से आज दिल मिलें
खेलें सब मिलके
प्यार भरी होली

....रजनीश (06.03.15) 
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.... 

Sunday, January 25, 2015

चलो कुछ लिखा जाए


जुबां पर लफ्ज जब रुक जाएँ
तो आए लिखने का मौसम
दिल को एक खयाल जब सताए
तो आए लिखने का मौसम
जब कोई ज़ख्म कुरेद जाए
तो आए लिखने का मौसम
वो जाम आँखों से जब पिलाए
तो आए लिखने का मौसम
जब एक लम्हा ठहर जाए
तो आए लिखने का मौसम
जब वक्त से बिछड़ जाएँ
तो आए लिखने का मौसम
जब मनचाहा मिल ना पाए
तो आए लिखने का मौसम
जब एक हसरत पूरी हो जाए
तो आए लिखने का मौसम
दिल में जब तनहाई उतर आए
तो आए लिखने का मौसम
दिल से जब दिल मिल जाए
तो आए लिखने का मौसम

...........रजनीश (25.01.15)

Saturday, January 24, 2015

दरअसल ....



















था न कोई उस राह , पर इंतजार हम करते रहे
उनको हमसे नफ़रत सही , पर प्यार हम करते रहे    

वक़्त की ख़िदमत में , अक्ल-ओ-दिल से लिए फैसले
और किस्मत के नाम , हर अंजाम हम करते रहे

रिश्ता निभाने खुद को भुला देने से था परहेज़ कहाँ  
बस रिश्ता बनाने का जतन हम करते रहे

बसा जो दिल में था उसे क्या भूला क्या याद किया  
बस खोए हुए दिल की तलाश हम करते रहे

क्या कहें क्या अफसाना क्या मंज़िल क्या ठिकाना
बस एक सफ़र की गुजारिश हम करते रहे

............रजनीश (24.01.15)

Sunday, September 8, 2013

प्यार की चाह में

गर प्यार हो दिल में
हर पल सुहाना होता है
प्यार की चाह में
हर दिल दीवाना होता है

उनके दीदार को
तरसती हैं हरदम आँखें
करीब उनके चले जाने 
हरदम एक बहाना होता है

उनके लब हिलते हैं
तो फूल खिलते है
उनका हर लफ़्ज़
एक तराना होता है

प्यार पर सिर्फ़
गेसूओं की छाँव नहीं
दूर रहकर भी
प्यार निभाना होता है

प्यार देने में है असल
पाने की सिर्फ़ चीज़ नहीं
प्यार खुशियाँ लुटाना
आँसू पी जाना होता है

गर प्यार हो दिल में
हर पल सुहाना होता है
प्यार की चाह में
हर दिल दीवाना होता है 

......Rajneesh (08.09.2013)

Saturday, August 31, 2013

तू जब भी मुझसे मिले ...


तू जब भी मुझसे मिले ऐसे मिले
ज्यों रात चाँद चाँदनी से मिले
तू जब भी मुझसे...

हुई जब भी आहट तेरे आने की
पन्नों के बीच दबे फूल खिले
तू जब भी मुझसे...

तेरी आवाज़ जब भी सुनता हूँ
लगे है बंसरी को जैसे सुर हो मिलें
तू जब भी मुझसे...

जो फ़ासला था वो फ़ासला ही रहा
दो पटरियों की तरह संग चले
तू जब भी मुझसे...

तेरे खयाल जब भी दिल से बात करें
तेज़ बारिश हो आंधियाँ भी चलें

तू जब भी मुझसे मिले ऐसे मिले
ज्यों रात चाँद चाँदनी से मिले
........रजनीश ( 31.08.2013)

Tuesday, February 26, 2013

एक ख़ोज


सपनों की फेहरिस्त लिए 
रोज़ चली आती है रात 
गुजार देते है उसे, ढूंढते 
फेहरिस्त में अपना सपना 

कुछ तारों को तोड़ रात 
कल सोये साथ लेकर हम 
 गुम हुए सुबह की धूप में 
जैसे गया था बचपन अपना 

हर गली से गुजरते जाते हैं 
 लिए हाथों में तस्वीर अपनी 
अपनों के इस वीरान शहर में 
बस ढूंढते रहते हैं कोई अपना 

कुछ दिल उतर आया था
लाइनों में बसी इबारत में 
लिफ़ाफ़े पर कभी उसका 
कभी पता लिख देते है अपना 

चलते हैं कहीं पहुँचते नहीं 
थका देते ये पथरीले रस्ते 
रस्ता ही तो है वो मंज़िल 
  ज़िंदगी है हरदम चलना 

......रजनीश (26.02.2013)

Saturday, January 5, 2013

इक आस














एक रोशनी
बुझते बुझते
एक आग दे गई
दरिंदगी से लड़ती
एक आवाज़ दे गई

खो गई
कहीं आसमां में
इक राह दे गई
हैवानियत ख़त्म करने की
एक चाह दे गई

जूझती रही
बिना थके
दुनिया हिला गई
अत्याचार से लड़ने
कई दिल मिला गई

ना खत्म हो ये जज़्बा
ये सैलाब रुक ना जाए
इक शहादत से जली
ये मशाल बुझ न पाए... 
....रजनीश (05.01.2013)

Saturday, April 28, 2012

कैमरा













एक कतरा दर्द
खोल झरोखा पलक का
छोड़ दिल का साथ
कोरे कागज़ पर टपकता है

एक चाहत की बूंद
गुलाब की पंखुड़ी से फिसल
ओस का चेहरा लिए
जमीं से जा मिलती हैं

खुशियों के इंद्रधनुष
रंगते हैं आसमां को
ढलते सूरज के साथ दाना लिए
एक पंछी लौटता है अपने घर
चाँद  साथ तारों के
खिड़की के करीब आता है
करने दूर तन्हाई
एक लंबी रात में

कैद हो जाते हैं
ये सब मंज़र
एक अंधेरे घर में
पीछे इक काँच के
हूबहू वैसे ही जैसा उन्हें देखा था

तस्वीरों का ये घर
दिल जैसा तो नहीं दिखता
पर जब भी इस घर से
तस्वीरों को निकाल के देखता हूँ
याद आ जाती है दिल की एक पुरानी धड़कन
और लौट आते हैं कुछ पुराने अहसास

हर तस्वीर के भीतर होती है
एक दिल की तस्वीर
जो छुपी होती है कहीं पर
एक नज़र देख लेने भर से 
सांस लेने लगती है
कैमरा अहसासों को सँजोता है
जब एलबम पलटता हूँ
तो सारी तस्वीरों में होता हूँ
बस मैं ही
मेरा ही कोई हिस्सा ...
.....रजनीश (28.04.2012)


Saturday, April 21, 2012

धूल के बवंडर

धूल के बवंडर
देखता हूँ अक्सर
बनते बिगड़ते
यहाँ वहाँ भागते
अपने साथ
तिनकों और पत्तों को
ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ते

पत्ते और तिनके
अपनी किस्मत के मुताबिक
आसमान में कटी पतंग जैसे
दूर दूर जा गिरते हैं

पता नहीं कहाँ से
उठते है ये बवंडर
धरती के सीने में
दो शांत पलों के अंतराल में
हवा कितनी तेज हो जाती है
अचानक , जैसे किसीने उसकी
दुखती रग पर हाथ रख दिया हो
आसमान छू लेने की चाहत में
तेजी से घूमते हुए उठते हैं
धूल के बवंडर

थोड़ी देर का
आवेग और आवेश
पर इनके बाद के शांत पल
अपने साथ लिए रहते हैं
विध्वंस के निशान
और रिसते ज़ख्म
दिल की दीवार का
कुछ हिस्सा जैसे
झंझावात में
टूट कर बिखर जाता हो
और आँखों में घुस आती है धूल
और दिखता नहीं कुछ भी

कई बार बवंडर
मुझसे निकलकर
धूल उड़ाते भागते हैं
कई बार मैं खुद
ऊंचाइयों से गिरा हूँ
बवंडर में उड़कर
कुछ बवंडर दूर से
मेरे पास आते गुम गए
कभी मैं ही खो गया बवंडर में
कभी आने का एहसास
पहले दे देते हैं ये
कभी इनका पता चलता है
इनसे  गुजर जाने के बाद

बवंडरों की ज़िंदगी
होती है कुछ पलों की
पर खत्म नहीं होते ये
जाने के बाद भी
अमरत्व प्राप्त है इनको

बवंडर खुद बना कर भी देखा है
और इसे मिटा कर भी
पर इन बवंडरों पर काबू
ना हो सका अब तक
उड़ती धूल के थपेड़ों का सामना करता
खड़े रहने की कोशिश करता हुआ
मैं हर बार खुद को
थोड़ा और जान लेता हूँ
पर अब तक पहेली हीं रहे
धूल के बवंडर  ....
...रजनीश (21.04.2012)

Friday, April 13, 2012

भूकंप और सूनामी

[1]
तनाव में सांस लेती
ख़्वाहिशों की प्लेटें
दुनियादारी के बोझ में डूबी
मजबूरीयों के सागर तले
रिश्तों की चट्टानों के बीच
अक्सर टकराती हैं
कभी मैं पूरा हिल जाता हूँ
कभी दिल की गहराइयों में
एक और सुनामी आ जाती है

[2]
कई बार किया है सामना
पैरों तले काँपती जमीन का
कई दरारें पड़ीं
दिल की दीवारों में
कई बार रेत से
हसरतों के घर बनाते
और सागर की लहरें गिनते गिनते
मुझे यकायक आई सूनामी ने
मीलों दूर अनजानी
सड़कों पर ला फेंका और तोड़ा है
हर बार खुद को
बटोरकर जोड़कर
वापस आ जाता हूँ
फिर उस सागर किनारे
फिसलती रेत पर चलने
किनारे से टकराती लहरों
के थपेड़ों में खुद को भिगोने
और बनाने फिर से एक घरौंदा रेत का
.......रजनीश (13.04.2012)

Sunday, January 22, 2012

बचपन की बात


बचपन के दिन थे 
कुछ ऐसे पल छिन थे 
ऊपर खुला आसमां था 
पूरा शहर अपना मकां था 

हर बगिया के बेर 
होते अपने थे 
खेलते कंचे और  
बुनते सपने थे 

ना दुनियादारी की झंझट 
ना कोई नौकरी का रोना 
बस काम था पढ़ना 
खेलना-कूदना और सोना  

पर तब क्या सब मिल जाता था 
क्या जैसा चाहा  हो जाता था 
क्या दिल तब नहीं दुखता था 
क्या कांटा तब कोई नहीं चुभता था 

दिल चाहता था उड़ना बाज की तरह 
खो जाना वादियों में गूँजती आवाज़ की तरह 
हर खिलौना  मेरी झोली में नहीं था 
मेरा बिछौना भी मखमली नहीं था 

बचपन में ही जाना पराया और अपना 
कि सच नहीं होता है हर एक सपना 
सीखी बचपन में ही चतुराई और लड़ाई 
अच्छे और बुरे की  समझ भी बचपन में आई 

अफसोस तब भी 
दर्द तब भी होता था 
कुंठा तब भी 
प्यार तब भी होता था 

कुछ बातें ऐसी थी 
लगता बचपन कब बीतेगा 
जैसे नियंत्रण में रहना 
और पढ़ना कब छूटेगा 

बस उम्र ही कम थी 
और सब कुछ वही था 
थोड़ी सोच कम थी 
इसलिए सब लगता सही था 

उत्सुकता ज्यादा 
और शंका कम थी 
सौहार्द्र ज्यादा और
 वैमनस्यता कम थी 

पर थे सब एहसास 
हर भावना मौजूद थी 
लगते थे संतोषी 
पर हर कामना मौजूद थी 

बचपन है आखिर जीवन का हिस्सा 
दिन वही और रात वही है 
बस कुछ रंग हैं अलग 
तस्वीर वही और बात वही है 

कोई बचपन महलों में रहता 
कोई फुटपाथ पे सो जाता है 
किसी को सब मिल जाता है 
कोई बचपन खो जाता है 

हर बचपन एक जैसा नहीं होता 
जैसे नहीं हर एक जवानी 
अलग अलग चेहरे हैं सबके 
सबकी अलग कहानी 
...रजनीश (22.01.2011)

Sunday, December 25, 2011

सीटी

बचपन में हमने जब सीटी बजाई 
डांट भी पड़ी थोड़ी मार भी खाई 

होठों को गोलकर 
मुंह से हवा छोड़ना 
किसी गाने की लय 
से लय जोड़ना 

क्या गुनाह है 
अपनी कलकारी दिखाना 
इन्सानों को सीटी की 
प्यारी धुन सुनाना 

फिर कहा किसी ने 
 कला का रास्ता मोड़ दो 
शाम ढले खिड़की तले 
तुम सीटी बजाना छोड़ दो 

अब हम क्या कहें आप-बीती 
कभी ढंग से न बजा पाये सीटी 
कभी वक्त ने तो कभी औरों  ने मारा
अक्सर हो मायूस दिल रोया हमारा 

पर मालूम था अपने भी दिन फिरेंगे 
कभी न कभी अपने दिन सवरेंगे 

समाज सेवकों को हमारी बधाई 
हमारी आवाज़ संसद तक पंहुचाई 
आज कल खुश है अपना दिल 
आने वाला है व्हिसल-ब्लोअर्स बिल !
जब कानून होगा साथ 
फिर क्यों चुप रहना 
अब खूब बजाएँगे सीटी 
किसी से क्या डरना !
.....रजनीश (25.12.2011)

MERRY CHRISTMAS 
  
 

Monday, December 12, 2011

दिल का रिश्ता


आज छूकर देखा 
कुछ पुरानी दीवारों को 
सीलन भरी 
जिसमें दीमक के घरों से
बनी हुई थी एक तस्वीर
बीत चुके वक्त की 

आज एक पुराने फर्श पर
फैली धूल पर चला 
उस परत के नीचे
अब भी मौजूद थे 
मेरे चलने के निशान
कुछ जाले लिपट गए
मेरे हाथों से 
मकड़जालों के पीछे 
अब भी जीवित था 
अपनापन लिए एक मकान

धूल झाड़ी
जालों को हटाया
सो रही दीवारों को झिंझोड़ा
किए साफ कुछ वीरानगी के दाग
बिखरे हिस्सों को समेटा
 कुछ परतों को उखाड़ा

और पुराना वक्त 
फिर लौट आया 
दीवारों पर उभरे 
कुछ चेहरे 
जी उठी दीवार
सांस लेने लगी जमीन 
परदों से झाँकने लगे 
पुराने सपने 
कुछ पुरानी ख्वाहिशें 
कुछ पुराने मलाल 
खट्टी-मीठी यादों की गंध 
फैल गई हर कोने 

दिल का रिश्ता 
सिर्फ दिल से ही नहीं 
दीवारों से भी होता है ..  
रजनीश (12.12.2011)   

Saturday, November 26, 2011

छलावा

2011-11-15 17.34.22
तुम्हें जो खारा लगता है
वो सादा पानी होता है
समझते हो कि आँखों से
मेरा ये दिल टपकता है
मेरे आँसू क्या सस्ते हैं
गैरों के दर्द पर रोएँ
दिल नहीं दिखावा है
वही भीतर से रोता है

फंसा तो खुद में ही मैं हूँ
मुझे तो फिक्र अपनी है
परेशां खुद से ही मैं हूँ
तुम्हारी सुध मैं कैसे लूँ
मुझे फुर्सत कहाँ तुम्हारी
तकलीफ़ों पर मैं  रोऊँ
मेरा करम मेरे सीने में
हर दिन दर्द पिरोता है

होता वो नहीं  हरदम
नज़रों से  जो दिखता है
छलावा है जहां, जिसमें
भरम का राज होता है
खेलते हो  जब भी होली
किसी की सांस छीन कर तुम
लाल वो रंग नहीं होता
किसी का खून होता है

खुद को दोष क्या दूँ मैं
शिकायत क्या तेरी  करूँ
मुझे हर कोई मुझ जैसा
खुद में खोया लगता है
था बनने चला जो ईंसां
ज़िंदगी की राहों पर
जानवर रह गया बनकर
हरदम अब ये लगता है
.....रजनीश (26.11.2011)

Sunday, November 20, 2011

दास्ताँ - एक पल की

DSCN4962
कुछ रुका सा कुछ थका सा
कुछ  चुभा सा कुछ फंसा  सा
ये पल लगता है ...

कुछ बुझा सा कुछ ठगा सा
कुछ घिसा सा कुछ पिसा सा
ये पल लगता है  ...

कुछ गिरा सा कुछ फिरा सा
कुछ दबा सा कुछ पिटा सा
ये पल लगता है ...

दिल में है कुछ बात
जो इस पल से हाथ मिला बैठी
हाथ न आएगा अब जरा सा
ये पल लगता है ...

धूप ठहरती नहीं
न ही रुक पाती है रातें
गुजर जाएगा झोंका निरा सा
ये पल लगता है ...
.....रजनीश ( 20.11.2011)

Sunday, November 6, 2011

फ़ेस बुक

DSCN4800
चेहरों की किताब
हर चेहरे में अपना चेहरा
अपने चेहरे में हर चेहरा
मिलता हूँ अपनों से
किताब के पन्नों में
जो उभरते हैं एक स्क्रीन पर
जो कभी हुआ करते थे रु-ब-रु
थाम हाथ जिन्हें महसूस कर सकता था
अब छू तो नहीं सकता
पर देख सकता हूँ
और कभी-कभी तो पहले से भी ज्यादा
चेहरों की ये किताब हरदम साथ रहती है
पन्नों पर बहुत  से ऐसे भी चेहरे आए
जो बस एक धुंधली सी छाया थे
अब यादों ने फिर से पानी दिया
और चेहरों के अंदर से
फिर निकल आया कोई अपना
जुड़ जाती हैं टूटी कड़ियाँ
फिर हाथ आ जाता है वो छूटा सिरा
वक़्त लौट आता है
हम जो ढूंढते हैं वो भीतर ही होता है
किताब के चेहरे दरअसल
रहते हैं दिल में
फिर कोई मुखातिब हो या
दूर बैठा कहीं से
बांटता हो अपनी यादें
अपनी तस्वीरें  अपना मन
और सुनता हो  बातें करता हो
देखता हो और जुड़ा रहता हो
फिर एहसास नज़दीकियों के
मोहताज नहीं रह जाते
किताब एक बैठक बन जाती है
फासला कहाँ रह जाता है ?
अगर किताब के चेहरे असली हैं
तो आभासी कुछ भी नहीं 
साथ के लिए क्या ज़रूरी कि हाथ में हो हाथ
कोई बहुत दूर का  भी पास चला आता है
गम नहीं कि बहुत दूर मेरे घर  से तुम
क्यूंकि  हिस्सा दिल का कभी दूर नहीं जाता है ...
....रजनीश ( 06.11.2011)

Saturday, November 5, 2011

पियानो - एक चित्र

काली सफ़ेद
दहलीज़ें सुरों की,
साल दर साल
हर रोज़ अंगुलियाँ
जिन्हें पुकारती हैं
और हल्की सी आहट सुन
सुर तुरंत फिसलते बाहर चले आते हैं
कभी नहीं बदलती दहलीज़ सुरों की
और मिलकर एक दूजे से
हमेशा बन जाते हैं संगीत
जो उपजता है दिल में ,
पियानो पर चलती अंगुलियाँ
कभी साथ ले आती हैं तूफान
कभी ठंडी चाँदनी रात की खामोशी,
दिल की धड़कनें अंगुलियों पर
नाचती है सुरों के साथ
फिर पियानो बन जाता है दिल,
एक विशाल सागर
जिसकी लहरों पे सुरों की नाव
में तैरते हैं जज़्बात ...
एक दर्पण दिल का
वही लौटाता है
जो हम उसे देते हैं ...
....रजनीश (04.11।2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....