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Wednesday, October 28, 2015
कुछ क्षणिकाएँ..
[1]
है आँखों में नमी, हुई मानसून में कमी अल-निनो की करतूत, है सूखी सी जमीं
[2]
आगे बढ़ो मत भूलो हुए बापू शास्त्री यहीं कुछ करो विरासत इनकी बिखर जाए ना कहीं
[3]
हरी सब्जियाँ खाय के क्यूँ मन ही मन खुश होय रंग पेस्टीसाइड भरे जो इनमें जानलेवा होय
[4]
तिनके-तिनके बना आशियाना जिस जमीं को अपना जाना छोड़ना इक पल में वही ठिकाना इक मौत है "रिफ्यूजी" हो जाना
[5]
हर सच बताना जरूरी नहीँ है हर दर्द बताना जरूरी नहीं है मीडिया की भी है बड़ी जिम्मेदारी हर खबर दिखाना जरूरी नहीं है
[6]
प्याज के आंसू रोते थे अब दाल ने गलना बंद कर दिया जेब और खर्च की जंग छिड़ी अब दिमाग ने चलना बंद कर दिया
[7]
कभी चुप्पी चीखती है हर हल्ले में शोर नहीं होता कभी रात जगाती है हर किनारा छोर नहीं होता
...रजनीश (27.10.2015)
Friday, June 29, 2012
बारिश में धूप
बारिश से धुले
चमकते पत्तों पर
उतरी धूप
फिसल कर
छा जाती है
नीचे उग आई
हरी भरी चादर पर
बादल रुक जाते हैं
और हल्की ठंडी
हवा के झोंकों में
कुछ दिनों से
प्यास बुझाती धरती
करती है थोड़ा आराम
ये धूप किसी के
कहने पर आ गई थी
वो सम्हालता अपना
उजड़ा आशियाना
कोई तानता
अपनी छत दुबारा
जो धरती पी न सकी
वो धाराओं में बह गया
और ले गया साथ
कुछ का सब कुछ
ये सब करते हैं
धूप का शुक्रिया अदा
और कोई धूप को
देख करता था रुख
बादलों की ओर
बार-बार और कहता था
कि तुम रुक क्यूँ गए
कि अभी तक
नहीं पहुंचा पानी
पोरों में, और फूटे नहीं हैं
अंकुर अभी बीजों में
फिर धूप से कहता था
तुम क्यूँ आ गईं
वहीं कोई बेखबर
इस धूप से बस यूं ही
चला जाता है और
पानी से भी
नहीं पड़ता उसे कोई फर्क
इन्हें कर लिया है उसने बस में
वही धूप वही बादल
वही पत्ते वही पानी , पर
एक सुबह का एहसास
हर किसी के लिए
अलग-अलग होता है
चमकते पत्तों पर
उतरी धूप
फिसल कर
छा जाती है
नीचे उग आई
हरी भरी चादर पर
बादल रुक जाते हैं
और हल्की ठंडी
हवा के झोंकों में
कुछ दिनों से
प्यास बुझाती धरती
करती है थोड़ा आराम
ये धूप किसी के
कहने पर आ गई थी
वो सम्हालता अपना
उजड़ा आशियाना
कोई तानता
अपनी छत दुबारा
जो धरती पी न सकी
वो धाराओं में बह गया
और ले गया साथ
कुछ का सब कुछ
ये सब करते हैं
धूप का शुक्रिया अदा
और कोई धूप को
देख करता था रुख
बादलों की ओर
बार-बार और कहता था
कि तुम रुक क्यूँ गए
कि अभी तक
नहीं पहुंचा पानी
पोरों में, और फूटे नहीं हैं
अंकुर अभी बीजों में
फिर धूप से कहता था
तुम क्यूँ आ गईं
वहीं कोई बेखबर
इस धूप से बस यूं ही
चला जाता है और
पानी से भी
नहीं पड़ता उसे कोई फर्क
इन्हें कर लिया है उसने बस में
वही धूप वही बादल
वही पत्ते वही पानी , पर
एक सुबह का एहसास
हर किसी के लिए
अलग-अलग होता है
....रजनीश (29.06.2012)
Saturday, October 1, 2011
झुर्रियों का घर
बनाया था जिन्होंने आशियाना
इकठ्ठा कर एक-एक तिनका
जोड़ कर एक-एक ईंट पसीने से
किया था कमरों को तब्दील घर में,
उसकी दहलीज़ पर बैठे वो
आज बस ताकते है आसमान में
और झुर्रियों भरी दीवारों पर लगी
अब तक ताजी पुरानी तस्वीरों से
करते हैं सवाल-जवाब बाते करते हैं ,
धमनियाँ फड़क जाती हैं अब भी
कभी तेज रहे खून के बहाव की याद में
धुंधली हो चली आँखों के आँगन में
आशा की रोशनी चमकती अब भी
कि ऐसा ही नहीं रहेगा सूना ये घरौंदा
और अपने खून से पाले हुए सपने
कुछ पल वापस आकर सुनाएँगे लोरियाँ,
आशा की रोशनी चमकती अब भी
कि सारे काँटों को बीन कर
अपने अरमानों और दीवानगी से
जो सड़क बनाई जिस अगली पीढ़ी के लिए
उनमें मे से कोई तो आएगा
हाथ पकड़ पार कराने वही सड़क ,
हर नई झुर्री से वापस झाँकता
वही पुराना समय पुराना मंजर
जब वो होते थे माँ की गोद में
और बुढ़ाती आँखों में अजब कुतूहल
जानी-पहचानी चीजों को फिर जानने का
और सदा जवान खत्म ना होता जज़्बा
काँपते लड़खड़ाते लम्हों को पूरा-पूरा जीने का ...
...रजनीश (01.10.11)
( 1 अक्तूबर , अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर )
Sunday, April 3, 2011
चंद शेर
स्वर्ग और नर्क के संसार यहीं होते है ..
भगवान और शैतान के दीदार यहीं होते हैं..
मिलने गया था कल इमाँ से उसकी बस्ती में ,
देखा कुछ लोग उसकी तस्वीर लिए रोते हैं..
हमारे सपनों की लड़ियों में स्वर्ण-महल ही नहीं
बस इक आशियाने के अरमान हम पिरोते हैं..
किया था प्यार कि ज़िंदगी को मुकाम मिल जाये,
है अंजाम ये कि अपने काँधों पे ज़ख्म ढोते हैं ...
ख़्वाहिश उनसे मिलने की मिट जाती है देखने भर से,
ये दुनिया है उनकी , हम किस्मत पे अपनी रोते हैं..
बनाते रस्ते तुम कि सफ़र सभी का हो आसां,
क्यूँ अधूरे सफ़र फिर इन रस्तों पे खत्म होते हैं...
...रजनीश (03.04.11)
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