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Tuesday, January 22, 2013

इंकलाब



क्या बस कहने से आ जाएगा इंकलाब
क्या मोमबत्तियों में कहीं छुपा है इंकलाब
क्या एक जगह जुट जाने से आ जाएगा
क्या बाज़ार में मिलती कोई चीज़ है इंकलाब

क्या किसी घर में छुपा है इंकलाब
क्या चंद लोगों का गुलाम है इंकलाब
क्या सब कुछ तोड़ देने पर मिल जाएगा
क्या बस चेहरा बदल लेना है इंकलाब

क्या सिर्फ औरों से कुछ चाहना है इंकलाब
क्या लकीरें पीटने से आ जाता है इंकलाब
क्या दूसरों पर मढ़ देने से हो जाएगा
क्या दूसरों को बदल देना है इंकलाब

अब हो तुम किसी के गुलाम नहीं
सिर्फ अपनी ही मर्जी के मालिक हो
अब तोड़ने और मुखालफत करने से नहीं
सिर्फ खुद को बदलने से आएगा इंकलाब   
              ......रजनीश (22.01.2013)

Thursday, June 23, 2011

जवाब की तलाश में ...

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तन्हाई की हद का कोई हिसाब क्यूँ नहीं
अपनी किस्मत के सवालों का कोई जवाब क्यूँ नहीं

लगी उम्र   हमसे दिल का चुराना न हुआ
सिखा दे इश्क़ हमें ऐसी कोई किताब क्यूँ नहीं

गिरा दी  दीवार  हमने तोड़ फेंके सारे बंधन
फिर भी   हाथों में उनके एक छोटा गुलाब क्यूँ नहीं

मुझ गरीब से लेते हो एक पाई का लेखाजोखा
उस अमीर की कारस्तानियों का कोई हिसाब क्यूँ नहीं

भरे हैं मयखाने जिगर खराब  सुरूर फीका है
नशा हो ज़िंदगी तुम बनाते इसे शराब क्यूँ नहीं

सुधरो खुद फिर सुधारने चलो औरों को
सभी हों खुश तुम्हारी नज़रों में ऐसा ख़्वाब क्यूँ नहीं

क्या बदलेगी ये दुनिया बदल के क़ानूनों को
बदल जाये इंसान लाते ऐसा इंकलाब क्यूँ नहीं
...रजनीश (23.06.2011)
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