तुम्हें देख सकता हूँ
तुम्हें सुन सकता हूँ
महसूस कर सकता हूँ तुम्हें
तुम्हें छू सकता हूँ
तुम्हें बसा सकता हूँ दिल में
पर समझ नहीं सकता तुम्हें
तुम्हें जान नहीं सकता पूरा
क्यूंकि कभी हृदय आड़े आता है
या फिर कभी ये मस्तिष्क
कुछ सीमाएं हैं मेरी भी समझ की
कुछ तुम हो अव्यक्त
कुछ हिस्सा तुम्हारा अदृश्य
तुम्हारे कुछ कंपनों का
आभास ही नहीं होता
पर क्या ये जरूरी है
कि हो कुछ उस जीती जागती
तस्वीर के अलावा भी
जो मैं देखता हूँ , छूता हूँ , महसूस करता हूँ
क्या होता गर सब कुछ पता होता
मैं सब कुछ जान लेता
खुद को भी और तुम्हें भी
पूरा का पूरा पहचान लेता
तुम्हारे प्यार के एहसास के लिए
दिल पर विश्वास करता हूँ
तुम्हारी आँखों में
प्रेम का छलकता सागर देखता हूँ
और सब कुछ प्रेम मय पाता हूँ
गर सब कुछ जान जाता तो
पता नहीं प्यार की क्या परिभाषा होती
गहराई में उतरना और मोती ढूँढना
शायद दूर ले जाए खुद से भी
क्यूंकि खोज तो अनंत होती है
अहसासों से परे ...
सच की परतें उधेड़ते
भ्रम और प्रश्नों की
कई और दीवारें
खड़ी होती चली जाती हैं
और यात्रा तारों से भी
दूर की हो जाती है ...
चलो फूल को फूल ही रहने दें
उसकी पंखुड़ियाँ तोड़
सुंदरता ना तलाशें
आओ स्वीकारें एक दूसरे को
बिलकुल वैसा और जितना
हम समझते हैं
मैं नहीं देख सकता पूरा-पूरा
मैं झांक भविष्य के घर में
पहचान नहीं सकता कल की तस्वीर
शायद इसीलिए कि
एहसास जिंदा रहें
और ज़िंदगी में हो
रोमांच और दिलचस्पी
इसीलिए छोड़ दो विश्लेषण
प्यार के मोती पिरो लो
विश्वास के धागे में
देखो प्यार भरी नजरों से
हर तरफ फैला हुआ प्यार
और हर पल में बसे
आनंद को जी लो
जी भर के ....
....रजनीश ( 16.01.2012)