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Monday, May 28, 2018

घड़ी की टिक-टिक


वक्त गुजरता जाता है
समय बदलता जाता है
इक पल आता
इक पल जाता
पल दर पल मंजर बदलता
संसार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है

जो मैं था
वो अब मैं नहीं
जो तुम थे
वो अब तुम नही
पल दर पल बदलते धागे
करार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है

जो कोपल थी
अब पौधा है
जो पौधा था
अब दरख्त है
धरती पर दिन रात बदलते
और उसका श्रृंगार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है

जो बूंद में था
अब दरिया में
जो दरिया में
अब सागर में
सागर से बादल में जा
कहीं और बरसता जाता है
समय बदलता जाता है

ना सूरज वही
ना चांँद वही
ना धरती और ब्रम्हांड वही
संग घड़ी की टिक-टिक
कण-कण का रुप आकार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है..
                   ....रजनीश (28.05.18)
   

Thursday, February 19, 2015

रोशनी और अंधेरा



रोशनी कर तो ली मैंने अंधेरा भी गुम हो गया
पर चिराग की जुगत में रस्ता ही गुम हो गया

अंधेरे में थी ना बात कि चरागों को बुझा सके
पर हवा का झोंका साजिश में शामिल हो गया

अंधेरा न आया कहीं से न गया ही था कहीं  
जला बस इक चिराग माहौल रोशन हो गया

रही संग उसके रोशनी जब तक जला चिराग
थक कर क्या रुका वो अंधेरे में खो गया 

रोशनी का समंदर  अंधेरे को डुबा न सका 
जाने कहाँ जलते चरागों का  दम खो गया

बढ़ते कदमों को रोकने का दम अँधेरों में कहाँ
जब सफर बुलंद हौसलों से रोशन हो गया 

अजब सी बात रोशनी में हम तुम ज़ुदा ज़ुदा
पर बंद आँखों से जब देखा मैं तुम हो गया
.....रजनीश (19.02.15)

Sunday, August 4, 2013

दोस्त है वो ...


वो कुछ कहता नहीं,
और मैं सुन लेता हूँ,
क्योंकि उसकी बातें
मेरे पास ही रखी हैं,
उसकी आवाज़ में झाँककर
कई बार अपने चेहरे पर चढ़ी धूल
साफ की है मैंने ,
अक्सर उसकी वो आवाज़,
वहीं पर सामने होती है
जहां तनहा खड़ा ,
मैं खोजता रहता हूँ खुद को,
उस खनक में ,
रोशनी  होती है एक
जो करती है मदद,
और मेरा हाथ पकड़
मुझे ले आती है मेरे पास,
उसकी आवाज़ फिर  सहेजकर
रख लेता हूँ....
दोस्त है वो मेरा .....
.............रजनीश (10.02.2011)
reposted on friendship day 

Thursday, November 29, 2012

वक़्त वक़्त की बात













गुजरता जाता है वक़्त
वक़्त को पकड़ते-पकड़ते,

भूलता जाता हूँ अपनी पहचान
वक़्त को पहचानते-पहचानते,

खोता जाता है वक़्त
खोये वक़्त को समेटते-समेटते,

खुद से लड़ जाता हूँ
अपने वक़्त से लड़ते-लड़ते,

खुद उखड़ता जाता हूँ
भागते वक़्त को रोकते-रोकते...

जी लिया वक़्त को जिस वक़्त
बस वही वक़्त अपना होता है
वरना गुम जाती है आवाज़
बस वक़्त को पुकारते-पुकारते ...
.       .....रजनीश (29.11.2012)

Monday, May 28, 2012

चेहरों का शहर














( अपनी एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट कर रहा हूँ ....)

एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Saturday, April 21, 2012

धूल के बवंडर

धूल के बवंडर
देखता हूँ अक्सर
बनते बिगड़ते
यहाँ वहाँ भागते
अपने साथ
तिनकों और पत्तों को
ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ते

पत्ते और तिनके
अपनी किस्मत के मुताबिक
आसमान में कटी पतंग जैसे
दूर दूर जा गिरते हैं

पता नहीं कहाँ से
उठते है ये बवंडर
धरती के सीने में
दो शांत पलों के अंतराल में
हवा कितनी तेज हो जाती है
अचानक , जैसे किसीने उसकी
दुखती रग पर हाथ रख दिया हो
आसमान छू लेने की चाहत में
तेजी से घूमते हुए उठते हैं
धूल के बवंडर

थोड़ी देर का
आवेग और आवेश
पर इनके बाद के शांत पल
अपने साथ लिए रहते हैं
विध्वंस के निशान
और रिसते ज़ख्म
दिल की दीवार का
कुछ हिस्सा जैसे
झंझावात में
टूट कर बिखर जाता हो
और आँखों में घुस आती है धूल
और दिखता नहीं कुछ भी

कई बार बवंडर
मुझसे निकलकर
धूल उड़ाते भागते हैं
कई बार मैं खुद
ऊंचाइयों से गिरा हूँ
बवंडर में उड़कर
कुछ बवंडर दूर से
मेरे पास आते गुम गए
कभी मैं ही खो गया बवंडर में
कभी आने का एहसास
पहले दे देते हैं ये
कभी इनका पता चलता है
इनसे  गुजर जाने के बाद

बवंडरों की ज़िंदगी
होती है कुछ पलों की
पर खत्म नहीं होते ये
जाने के बाद भी
अमरत्व प्राप्त है इनको

बवंडर खुद बना कर भी देखा है
और इसे मिटा कर भी
पर इन बवंडरों पर काबू
ना हो सका अब तक
उड़ती धूल के थपेड़ों का सामना करता
खड़े रहने की कोशिश करता हुआ
मैं हर बार खुद को
थोड़ा और जान लेता हूँ
पर अब तक पहेली हीं रहे
धूल के बवंडर  ....
...रजनीश (21.04.2012)

Saturday, February 25, 2012

मैं, तुम और हमारा वक़्त

तुम कहते हो जो मुकाम सफ़र में
गुजर जाते हैं वो फिर नहीं आते
पर कयामत बार-बार आती है
और दुनिया हर बार फिर से पैदा होती है
वक़्त का पहिया चलता रहता है
एक गोल घेरे में,
दुनिया की किस्मत में
वक़्त बार बार लौटता है

सुना ये भी है कि जा सकते हैं
वक़्त से आगे
और इसके पीछे भी
इसकी चाल का भी
कोई ठिकाना नहीं
कभी तेज कभी बहुत धीमा
मेरे कुछ पलों में
तुम्हारे बरसों गुजर सकते हैं

गुजरते पलों की रफ़्तार का
कुछ ऐसा ही है अपना भी तजुर्बा
कुछ बरस बीते पलों में
और बीते कुछ पल बरसों में
कभी मिला कोई जो था वक़्त से आगे
कोई गुजरे हुए पल में गड़ा
पर वक़्त नहीं मिला कहीं रुका हुआ,
वो हरदम चलता ही रहा
मैं तो नहीं पकड़ सका
मैं कोशिश कर सका
बस इसके साथ चलने की,

लौटते नहीं देखा मैंने
वक़्त  को कभी
और कभी मिला जो मुड़कर
एक गुजरा हुआ पल
तो वो पल भी वही नहीं था
उसका चेहरा मिला
कुछ बदला बदला सा

वक़्त क्या सच मे गुजर जाता है
हमेशा हमेशा के लिए
क्या जिस पल मेंअभी हम हैं
वो सचमुच गुजर गया है
वो कौन सा पल है
जिसमें मैं हूँ अभी

कई बार चाहा कि
गुजरे वक़्त में जाकर
बदल दूँ अपना आने वाला कल
चाहा कि आने वाले कल
के घर दस्तक दे
मोड़ दूँ अपना आज का रास्ता,
सुना है मैं भाग सकता हूँ
तेज़ वक़्त से और तुम भी
पर मैं तो दौड़ हारता रहा हूँ
आज तलक इस वक़्त से, 
तुम्हारी तुम जानो
ये बस वैसा ही चला
जैसा इसे मंज़ूर था

बदलते वक़्त की छाप
मिलती है जर्रे-जर्रे में
मैं नाप सकता हूँ
दूरियाँ पलों की
जो फैली पड़ी है
खुशियों और तनहाई के बीच
देखा है मैंने भी वक़्त को
सिर्फ गुजरते हुए

जान सका हूँ मैं तो सिर्फ यही कि
मुझे जो करना है वो इसी आज में
मैं तो सिर्फ इसे पूरा जीकर
बीते और आने वाले पलों को
बना सकता हूँ यादगार

इस कायनात के आगे
मैं कुछ नहीं तुम कुछ नहीं
दुनिया बार-बार बनेगी
पर मैं और तुम
क्या दुबारा होंगे यहाँ
क्या हमारा वक़्त लौटेगा

हमारा वक़्त है
सिर्फ ये आज
हमारा वक़्त है वो
जो है अभी और यहीं
जिस पल मैं मुख़ातिब हूँ तुमसे
बस ये पल हमारा है ....
रजनीश (25.02.2012)
टाइम ट्रेवल और सापेक्षता के सिद्धान्त पर 

Wednesday, February 15, 2012

तुम्हारा ही नाम











सुबह की सुहानी ठंड
बिछाती है ओस की चादर
घास पर उभर आती है
एक इबारत
हर तरफ
दिखता है बस
तुम्हारा ही नाम

राहों से गुजरते
वक़्त की धूल
चढ़ जाती है काँच पर
पर हर बार
गुम होने से पहले
इन उँगलियों से
लिखवा लिया करती है
तुम्हारा ही नाम

एक पंछी अक्सर
दाना चुगते-सुस्ताते
मुंडेर पर छत की
गुनगुनाता और बतियाता है
और वहीं पास बैठे
पन्नों पे ज़िंदगी उतारते-उतारते
उसकी चहचहाहट में
मुझे मिलता है बस
तुम्हारा ही नाम

सूरज को विदा कर
जब होता हूँ
मुखातिब मैं खुद से
तो बातें तुम्हारी ही होती हैं
और फिर थपकी देकर
लोरी गाकर जब रात सुलाती है
तो खो जाता हूँ सपनों में
सुनते सुनते बस
तुम्हारा ही नाम
......रजनीश (15.02.2012)

Thursday, February 9, 2012

मेरी दुनिया

मैं चलता हूँ जिस रास्ते पर
एक मील एक कदम
और कभी एक कदम
एक मील का होता है

घर की  सीढ़ी से उतरते
सड़क पर आते आते
घर के भीतर पहुंच जाता  हूँ
और सड़क घर के भीतर 
आ जाती है कभी-कभी 

सड़क पर चलते चलते
देखता हूँ एक फ़िल्म हर रोज़
वही पीछे छूटते मकान
बदहवास से भागते वही लोग
वही आवाजें वही कदम 
जब भी इस सड़क से जाता हूँ
इस सड़क पर मैं नहीं होता

अंनजान चेहरों  में
दिखते अपने जाने-पहचाने 
मिलते हैं अपने जाने-पहचाने 
बेगाने भी हर रोज़ 

मेरे भीतर एक और मैं 
उसके भीतर शायद एक और 
परत दर पर कई जिंदगियाँ 
बारी-बारी दिन भर 
सामने आती रहती हैं 

दिन भर कई जगह 
बढ़ते कदमों के साथ 
थोड़ा-थोड़ा छूटता जाता हूँ 
कहीं मैं कहीं मेरे निशान 
हर डूबते सूरज के साथ 
शाम जो लौटता है 
पूरा मैं नहीं होता 
घर की दीवारें भी 
कुछ बदल जाती हैं 

रात को बंद  आंखे 
देखती हैं कुछ सड़कें घर और चेहरे 
जो रात समेट कर ले जाती है 
सुबह-सुबह अपने साथ 

कुछ पल रोज़ 
अपना चेहरा देखता हूँ 
आईने में ..
पहचान नहीं पाता 
देखते देखते 
अपना चेहरा भूल सा गया हूँ 
और  कुछ पलों से ज्यादा 
 ठहर नहीं सकता 
आईने के सामने 
क्यूंकि वक़्त कहाँ होता है इतना 
क्या करूँ ...
..........रजनीश (09.02.12)

Wednesday, November 23, 2011

तलाश

 2011-10-30 11.39.48
ढूँढते थे तुमको हर कहीं
हर रास्ता हर एक गली
हरदम लगा  कि  तुम हो
पर तुम मिले कहीं नहीं

गुम गईं सारी मंज़िले
भटकते रहे हर डगर  
बदले कई आशियाने
चलता रहा सफ़र

तलाश उसकी हर कहीं
अब अपनी हो चली
ढूँढते हैं खुद को हम
क्या आसमां क्या जमीं
....रजनीश (23.11.2011)

Tuesday, September 27, 2011

एक और पड़ाव

p80_180911 002
(अपने ही जन्म दिवस पर ...)
बीतते जाते साल दर साल
एक दरख़्त बढ़ता जाता है
और नए नए रास्ते
मेरी झोली में गिरते जाते हैं
हर साल थोड़ा और जान लेता हूँ
ज़िंदगी को और हर साल पड़ाव पर
कुछ नए सवाल नज़र आते हैं
नहीं बढ़ती उम्र पूरी
उम्र का एक सिरा
ठहरा  रहता एक मुकाम पर
बदलते हैं कैलेंडर के पन्ने
पर  वो अब भी वहीं टंगा
उसी दीवार पर
हर साल कुछ पंखुड़ियाँ
और खुल जाती हैं
कुछ पत्ते हर साल झड़ते जाते हैं
एक तस्वीर की सूरत हर साल बदल जाती है
और वक्त की परतें फ्रेम पर चढ़ती रहती हैं
अभी भी चलते हैं सपने
नहीं थके अब तक
एक बच्चा
आज भी कोशिश करता है
महसूस करने , छू लेने की
पहचान लेने की
जान लेने की
जैसे आज ही लिया हो जन्म
हो जैसे ये एक नई शुरुआत ...
....रजनीश (27.09.2011)

Monday, August 8, 2011

खोज

021209 279















कोशिश करता रहता हूँ
खुद को जानने की
चल रहा हूँ एक लंबे सफर में
खुद को समझने की
सब करते होंगे ये
जो जिंदा है ,
मरे हुए नहीं करते
कोशिश का ये रास्ता ,
दरअसल भरा है काँटों से

बेसिर पैर और अनजानी सी जिंदगी
से बेहतर हैं ये कांटे
जिनकी चुभन से उड़ती है नींद और
खुल जाती है आँख
ये कांटे दिखाते हैं रास्ता
देते हैं हौसला
और भरते हैं मुझमें आशा ,
और आगे जाने की
खुद से बेहतर हो जाने की......
....रजनीश

Saturday, July 16, 2011

मैं ( पुन:)

माफ कीजिएगा , पुन: एक पुरानी पोस्ट ...

क्या ये मैं हूँ,mysnaps_diwali 019
ये तो प्यार की चाहत है,
जो करती है प्रेम !
ये देने वाला मैं नहीं ,
ये तो इच्छा है , पाने की;
ये मैं नहीं ,
बेबसी जो करती है गुस्सा;




mysnaps_diwali 005ये मैं नहीं ,
विचार कर रहे संघर्ष;
ये मैं नहीं,
डर है, जो दिखाता अपनापन ;
ये मैं नहीं
है  कमजोरी , जो करती है हिंसा



021209 212

ये मैं नहीं ,
अज्ञान है जो करता विवाद;
ये मैं नहीं ,ये तो  दंभ है
जो लड़ता है किसी और दंभ से ...
ये मैं नहीं ,
ये अधूरापन है जो
करता है ईर्ष्या,

mysnaps_diwali 006

ये मैं तो नहीं ,
खुश होती केवल इंद्रियां ,
ये मैं  नहीं,
तुम्हें बुरी लगती है
मेरी बोलने की आदत;


 DSCN1674

तुम्हें मुझसे नहीं ,
ईर्ष्या है  विजय से;
तुम मुझसे नहीं,
नाराज हो दंभ से;
ये मैं नहीं,
शायद तुम्हें पसंद है  सादगी ,



DSCN1678ये मैं नहीं ,
शायद  संगीत तुम्हें नचाता है,
ये मैं नहीं,
तुम्हारा विरोध है परिस्थिति से,
ये मैं नहीं ,
तुम शायद खफा हो किस्मत से,



IMAG0487
ये मैं नहीं ,वो मै नहीं,
फिर मैं हूँ कौन?
मैं क्या हूँ...
याने  ...रजनीश!!
नहीं...ये तो संज्ञा है, एक संबोधन ...
भावनाओं /परिस्थितियों की एक गठरी का  नाम है
'पर ये सिर्फ मेरी तो नहीं तुममें भी हैं , तुम्हारी भी हैं ....
फिर मैं कहाँ हूँ ?
और बाई-दि-वे, तुम कहाँ हो ??
.....रजनीश (06.12.10)

Wednesday, July 6, 2011

वक़्त से बात

DSCN3908
बस एक ही
काम है अपना
वक़्त के साथ चलना
पर उसके कंधे से मेरा कंधा
कहाँ मिला ?
हम दोनों ही चलते हैं
उसका हाथ
मेरे हाथों में जरूर है
पर मेरा बाकी जिस्म
है बहुत पीछे ,
महसूस होता है ये फासला
हाथ में जीते हुए दर्द से
खींचता है वक़्त , देता है आवाजें
कहता हूँ , वक़्त तुम ही कुछ तेज  हो
वक़्त कहता है
हाथ छूटा तो फिर न कहना
अगर मैं पहुँच गया
तुमसे पहले उस ठिकाने पर
तो फिर तुम्हें खींच न पाऊँगा
तुम्हारी अधूरी कहानी
संग ख़त्म हो जाऊंगा
मैंने कहा मैं क्या करूँ
तुम ही मुझे इस कंटीले
ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर ले आए
तुम खुद आगे निकल गए
ऐ  वक़्त तुम रुकते नहीं हो
किसी के लिए
मेरी भी कोई दुश्मनी नहीं तुमसे
फिर ये खींचातानी किस लिए
तकलीफ़ तो तुम्हें भी होती होगी
इन पथरीले फिसलन भरे रस्तों में
मत रुको मैं नहीं लड़ूँगा
पर अब रास्ता मैं बनाऊँगा
और जहां तक चल सकूँ
अब तुम होगे मेरे साथ
तुम्हारी पहचान मुझसे है
तुम मेरा वक़्त हो
बहुत हो गया
अब मैं तुम्हें मंज़िल दूँगा ...
...रजनीश ( 05.07.2011 )

Wednesday, May 25, 2011

चेहरे

DSCN1811
एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए 
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है 
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स 
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Thursday, March 31, 2011

गुलाबजल

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आओ
बताऊँ  एक बात तुम्हें ,
मुझे तलाशते
जब तुम्हारी आँखों में गड़ता है कोई प्रश्नचिन्ह
कुछ धुंधला सा देखते हो ,
मैं कुछ शब्दों का गुलाबजल
बना कर लगा देता हूँ तुम्हारी आँखों में
मेरी झोली में शब्द हैं गिने-चुने
नतीजतन कुछ सवाल शब्दों में ही फंस जाते है
फिर शब्दों के चेहरे बदल कर पेश करता हूँ
कि थोड़ी और ठंडक पहुंचे
तुम्हारी आँखों को और
शब्द सफल हो जाएँ ,
पाँच अक्षरों की खूबसूरती को
बना  देता हूँ दो अक्षर का चाँद,
पर साथ घुस आता है 
दो शब्दों का दाग,
कैसे समेटूँ
सब कुछ तुम्हारे लिए..
कुछ शब्दों के मटके और
अविरल बहता जल,
इसलिए बेहतर होगा तुम आंखे बंद कर लो
महसूस करो ये प्रवाह ,
और एक स्पर्श में 
पूरा अभिव्यक्त हो जाऊंगा मैं  ...
...रजनीश ( 30.03.11)

Tuesday, March 29, 2011

हमराज़

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तुम चाहते हो सब कुछ कह दूँ तुम्हें,
एक बार फिर दिल खोल कर रख दूँ 
उन कुछ पलों को मेरे अपने हो जाओगे,
मैं  तुम्हें थोड़ा और मालूम हो जाऊंगा, 
जान जाओगे एक और राज़, 
फिर शांत हो जाएगी तुम्हारी जिज्ञासा, 
हम दोनों के बीच खुला पड़ा
सामने मेज पर मुझे
देखकर ऊब  जाओगे,
कर्तव्य पूरा करोगे, मैं समझता हूँ कहकर ,
फिर तुम्हें अपनी सलीब दिखेगी
जो तुम्हें निकालेगी मेरी कहानी से हमेशा की तरह
दूर होने लगोगे तुम वहीं बैठे-बैठे,
और फिर सब भूल जाओगे जाते-जाते ,
थोड़ी देर में मेरा भी भ्रम दूर हो जाएगा
कि मन हल्का हो गया, 
मैं थोड़ा और बिखर जाऊंगा,
खैर,  तुम सुन तो लेते हो ...  
....रजनीश (29.03.11)

Monday, March 21, 2011

होली के बाद

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क्या बताऊँ तुम्हें,
क्या खूब होली थी ,
क्या रंग चढ़ाया था यारों ने ,
सबको गले लगाया,
उसे भी सराबोर किया रंगों में,
याद नहीं गुलाल लगे
कितने गुझिए खा गया मैं,
नंगे पैर भंग की तरंग में
नाचता रहा  नगाड़े के फटने तक,
और फिर नशे को फाड़ा घंटों बैठ,
नींबू और पता नहीं क्या-क्या ...
जुगत तो बहुत लगाई थी
कि रंग कोई ना चढ़े,  पर
ज़ालिमों ने न जाने कौन सा रंग लगाया था,
चार घंटे घिस-घिस के जब छिल गई चमड़ी
तब कहीं उतरे ये रंग,
बड़ी मेहनत के बाद उतरी होली ,
देखो एक कण भी नहीं बचा
अब किसी रंग का ...
तुम नहीं कह पाओगे अब मुझे देख
कि वो जो झूम रहा था,
रंगों में डूबा जो प्रेम बाँट रहा था,
रंगों में घुल सब के संग-
एक हो गया था
वो मैं था ,
नहीं ,अब मुझे देख यह तुम कह नहीं पाओगे ...
कि मैंने होली खेली थी ...
  ...रजनीश (21.03.11)

Monday, March 7, 2011

जड़त्व

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कई  बार  मरा,
और फिर से  जिया हूँ मैं,
पर  हर बार ही ज़िंदगी
वही रही पुरानी,
बस जैसे पत्ते झड़ गए
और फिर से आ गए,
कभी कुछ  घोसलें बन गए मुझ पर,
कभी कोई राहगीर
दो पल को रुक गया मेरी छाँव में,
कभी कोई फूल ले गया,
कभी किसी ने फल तोड़ा,
किसी को कांटे लगे,
हवाओं ने कई बार झुकाया मुझे,
साल दर साल
परतें चढ़ती रहीं मुझ पर ,
और अब तो बहुत विस्तार हो गया है मेरा,
मैंने सूरज और चंदा दोनों की किरणों को जगह दी है ,
और चाँदनी को भी दिया हैं बिछौना,
मेरे पास से गुजरती रही हैं ढेरों ज़िंदगानियां,
पर ठिकाना किसी ने नहीं बनाया यहाँ,
मुझे पता है कि, तुम
रहते हो दूसरे किनारे पर ,
क्या करूँ , नहीं पहुँच सकता तुम तक,
समय के साथ चलते-चलते
मेरी जड़े भी बहुत भीतर तक चली गईं
और अब भी वहीं खड़ा हूँ
जहां कभी  शायद
तुमने ही तो लगाया था मुझे ...
कम से कम देख तो सकते हो  ...
कभी समय निकाल तुम ही चले आते इधर ...
  ....रजनीश (07.03.2011)

Friday, February 11, 2011

दोस्त

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वो कुछ कहता नहीं,
और मैं सुन लेता हूँ,
क्योंकि उसकी बातें
मेरे पास ही रखी हैं,
उसकी आवाज़ में झाँककर
कई बार अपने चेहरे पर चढ़ी धूल
साफ की है मैंने ,
अक्सर उसकी वो आवाज़,
वहीं पर सामने होती है
जहां तनहा खड़ा ,
मैं खोजता रहता हूँ खुद को,
उस खनक में ,
रोशनी  होती है एक
जो करती है मदद,
और मेरा हाथ पकड़
मुझे ले आती है मेरे पास,
उसकी आवाज़ फिर  सहेजकर 
रख लेता हूँ....
दोस्त है वो मेरा .....
.............रजनीश (10.02.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....