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Tuesday, March 15, 2011

कंपन

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धरती काँपती है ,
हर तरफ होता विनाश साक्षी है ।
दिन में ,
कुछ पलों के लिए
मैं  भी जमीन पर होता हूँ,
पर कभी महसूस नहीं हुआ,
जमीन का तनाव, वो कंपन ।
कल कान लगाकर
सुनने  की कोशिश की
धरती की धड़कन,
बस अपनी ही ध्वनि सुन सका ।
पर, शांति के इस समुद्र का  तल
अशांत पत्थरों का घर क्यूँ  है ?
धरती  अधूरी है अभी ,
अजन्मी, अर्धविकसित,  
तभी तो भीतर ये हलचल है ।
कुछ अभी तक अधूरा ।
क्यों ,मेरे अंदर भी
ढेर सारा और दबा हुआ
लावा है ?  क्यूंकि मैं भी
इसी धरती का पुत्र हूँ ?
इसका अंश , पूरा-पूरा धरती जैसा ,
मैं भी तो अभी गर्भ में हूँ ।
उसी अधूरेपन, उसी अपूर्णता
का रोपण इसकी छाती
पर भी करता हूँ ।
अपनी दुनिया बसाता हूँ,
एक अस्थिर नींव पर
अधूरा, अशक्त मकान  बनाता हूँ
और करता रहता हूँ असफल कोशिश
अपनी नश्वरता को पोषित
करने की इस घर में ।
बस एक आशा है ..
जब धरती  बन जाएगी पूरी,
तब  नदी  कभी गांव में नहीं आएगी,
सागर तांडव नहीं करेगा ,
झील गुम नहीं होगी,
पहाड़ चलना बंद कर देंगे,
हरी-हरी  चादर को नहीं जलाएगा लावा,
कोई घर भी नहीं टूटेगा,
और फिर मेरा जन्म होगा ,
एक शांत, संतुष्ट और सम्पूर्ण मैं ...
..रजनीश (15.03.2011)
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