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Wednesday, April 24, 2013

कुछ यूं करके भी देख ...



















हवा में हरदम ऊंचा उड़ता  है
कभी जमीं पर चलकर देख,

फूलों का हार पहन इतराता है
कभी कांटे सर  रखकर देख,

दौलत और दावतें उड़ाता  है
कभी जूठन चखकर देख,

बस पाने की जुगत ही करता है
कभी कुछ अपना  खोकर देख,

अपनी जीत के लिए  खेलता है
कभी औरों के लिए हारकर देख,

 जो  नहीं उसके लिए ही रोता है
कभी जो संग उसके  हँसकर देख,

बस किताबें पढ़ता रहता है
कभी  चेहरों को पढ़कर देख,

औरों के रास्ते ही चलता है
कभी अपनी राह चलकर देख,

दूसरों के घर झाँकता रहता है
कभी अपने घर घुस कर देख...
......रजनीश (24.04.2013)

Saturday, July 23, 2011

लंच

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रोज शुरू होता है
एक पसीने का सफर
पैरों तले जमीन और
गुजर बसर के लिए
वहीं से जहां कल छोड़ा था
छोड़ा था भी या नहीं
मुश्किल है कह पाना ...
पैसे बनाने की
एक बड़ी मशीन के पुर्जे
बने हम चलते रहते हैं
पेट के लिए करते हैं ये सब
वक़्त  हमसे होकर गुजरता रहता है
छोड़कर अपने निशान बदन पर ...
और रोज़ लंच का डिब्बा
पड़ा  रहता है त्यक्त अवांछित
एक कोने में
काम के बोझ में दबे-दबे
दोपहर में खोलकर डिब्बा
उसमें रखी  रोटी और  थोड़ा सा प्यार
एक मजबूरी की तरह खाते हैं
इस आपाधापी में
रोटी-वोटी पेट में चली जाती है
प्यार-व्यार छिटककर बस जूठन रह जाता है
जीभ चखती नहीं है
दिलोदिमाग की भूख मिटती नहीं और
डिब्बा बस खाली हो जाता है
एक काम  की तरह ,
हम कभी नहीं होते खाने के साथ
कुछ इस तरह खो जाते हैं रास्ते में
कि मंज़िल का पता ही भूल जाते है
कहीं जाना होता है  कहीं और पहुँच जाते हैं
कमाते हैं खाने के लिए
और खाना भूल जाते हैं
.... रजनीश (23.07.2011)
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