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Friday, February 27, 2015

राह-ए-इश्क


राह-ए-इश्क में क्यूँ गमों की भीड़ सताती है
हो कितनी ही काली रात सुबह जरूर आती है

बाग-ए-बहार दूर सही गमोसितम की महफ़िल से
फूलों की महक भला काँटों से कहाँ रुक पाती है

मंज़िलें खो जाने पर कहाँ ख़त्म होता है सफ़र
गुम हो रही राह से भी एक राह निकल आती है

फिक्र नहीं गम-ओ-दर्द का बसेरा मिलता है हर राह
कड़ी धूप हो या बारिश एक छांव तो मिल जाती है  

राह-ए-इश्क में लुटा खुद को सारी खुशियाँ लुटा दो
गमों  के साये गुम जाते हैं हर खुशी लौट आती है  

........रजनीश (27.02.15)

Sunday, September 8, 2013

प्यार की चाह में

गर प्यार हो दिल में
हर पल सुहाना होता है
प्यार की चाह में
हर दिल दीवाना होता है

उनके दीदार को
तरसती हैं हरदम आँखें
करीब उनके चले जाने 
हरदम एक बहाना होता है

उनके लब हिलते हैं
तो फूल खिलते है
उनका हर लफ़्ज़
एक तराना होता है

प्यार पर सिर्फ़
गेसूओं की छाँव नहीं
दूर रहकर भी
प्यार निभाना होता है

प्यार देने में है असल
पाने की सिर्फ़ चीज़ नहीं
प्यार खुशियाँ लुटाना
आँसू पी जाना होता है

गर प्यार हो दिल में
हर पल सुहाना होता है
प्यार की चाह में
हर दिल दीवाना होता है 

......Rajneesh (08.09.2013)

Saturday, August 31, 2013

तू जब भी मुझसे मिले ...


तू जब भी मुझसे मिले ऐसे मिले
ज्यों रात चाँद चाँदनी से मिले
तू जब भी मुझसे...

हुई जब भी आहट तेरे आने की
पन्नों के बीच दबे फूल खिले
तू जब भी मुझसे...

तेरी आवाज़ जब भी सुनता हूँ
लगे है बंसरी को जैसे सुर हो मिलें
तू जब भी मुझसे...

जो फ़ासला था वो फ़ासला ही रहा
दो पटरियों की तरह संग चले
तू जब भी मुझसे...

तेरे खयाल जब भी दिल से बात करें
तेज़ बारिश हो आंधियाँ भी चलें

तू जब भी मुझसे मिले ऐसे मिले
ज्यों रात चाँद चाँदनी से मिले
........रजनीश ( 31.08.2013)

Wednesday, April 24, 2013

कुछ यूं करके भी देख ...



















हवा में हरदम ऊंचा उड़ता  है
कभी जमीं पर चलकर देख,

फूलों का हार पहन इतराता है
कभी कांटे सर  रखकर देख,

दौलत और दावतें उड़ाता  है
कभी जूठन चखकर देख,

बस पाने की जुगत ही करता है
कभी कुछ अपना  खोकर देख,

अपनी जीत के लिए  खेलता है
कभी औरों के लिए हारकर देख,

 जो  नहीं उसके लिए ही रोता है
कभी जो संग उसके  हँसकर देख,

बस किताबें पढ़ता रहता है
कभी  चेहरों को पढ़कर देख,

औरों के रास्ते ही चलता है
कभी अपनी राह चलकर देख,

दूसरों के घर झाँकता रहता है
कभी अपने घर घुस कर देख...
......रजनीश (24.04.2013)

Sunday, March 3, 2013

खेल इंसान का


राह तो बस राह है 
उसे आसां या मुश्किल बनाना  
इंसान का खेल है 

तकदीर तो बस तकदीर  है 
उसे बिगाड़ना या  बनाना 
इंसान का खेल है

पत्थर  तो बस पत्थर  है 
पत्थर को भगवान बनाना 
इंसान का खेल है 

फूल तो बस फूल है 
फूल  सेज़ या सिर पर चढ़ाना  
इंसान  का खेल है 

यार तो बस यार हैं 
यार को जात  रंग में ढालना 
इंसान का खेल है 

चाहत तो बस चाहत है 
उसे प्यार या नफ़रत बनाना 
इंसान का खेल है 

दीवारें तो बस दीवारें हैं 
उनसे घर या कैदखाने बनाना 
इंसान का खेल है 

आग तो बस आग है 
आग में जलना जलाना 
इंसान का खेल है 

पैसे तो बस पैसे हैं 
उन्हें कौड़ी या खुदा बनाना 
इंसान का खेल है 

धरती तो बस धरती है 
इसे ज़न्नत या जहन्नुम बनाना 
इंसान का खेल है 

इंसान तो बस इंसान है 
उसे हिन्दू या मुसलमान बनाना 
इंसान का खेल है 

......रजनीश (03.03.2013)

Sunday, April 8, 2012

कुछ पलों के लिए

अनायास ही कुछ बूंदें आसमान से आकर
जमीन पर गिर पड़ीं
नीम दर्द से तपती जमीं पर
थोड़ी ठंडक छोड़ती
भाप बनती बूंदें
कुछ पलों के लिए

धूल का गुबार
थम सा गया था
और भाप होती बूंदों
के बचे हिस्सों ने उढ़ा दी थी
एक चादर जमीं पर
कुछ पलों के लिए

ठंडी हवा के झोंके में
जमीं का दर्द घुलकर
गुम गया था
मैं चल रहा था
हौले -हौले सम्हल सम्हल
ताकि जमीं रह सके इस सुकून में
कुछ पलों के लिए

फिर भी  उभर आए
मेरे पैरों के निशान
और धीरे धीरे
फिर धूल आने  लगी ऊपर
दब गई थी धूल
बस कुछ पलों के लिए

जैसे कोई बूढ़ा दर्द
थम गया हो
बरसों से जागती
आँखों में आकर बस गई हो नींद
एक उजाड़ से सूखे बगीचे में
खिल गया हो एक फूल
कुछ पलों के लिए

कुछ पलों का सुकून
कुछ पलों की बूँदाबाँदी
जलन खत्म नहीं करती
पर एहसास दिला जाती है
वक्त एक सा नहीं रहता
वक्त बदलता है
बुझ जाती है प्यास
बरसते हैं बादल  
साल दर साल
पर वक़्त नहीं आता
अपने वक़्त से पहले
................रजनीश (08.04.2012)

Saturday, March 24, 2012

पलाश .. एक बार फिर


पलाश
इस साल भी
दिख जाते हैं
हर रोज बिलकुल वहीं
जहां वो थे पिछले साल भी
बिलकुल वही रंग
पर मेरी आँखों पर
कोई पर्दा है
नज़र खोई रहती है कहीं

पलाश के फूलों
की पुकार भी
टकराती हैं आकर
 झकझोरती हैं
मुझे कई बार
पर मैं अनसुनी कर
चलता ही रहता हूँ
गूंजता रहता है
एक नया शोर भीतर

इस साल
चाल भी मेरी
कुछ बदली सी है
एक बार रुका भी
मैं पलाश के सामने
वो एक धुंधली मीठी याद सा
मेरे सामने कहता रहा
पहचानो मुझे ...!

मैं पलटता रहा
यादों के पन्ने
और किताब में
दबे एक पुराने फूल
से पहचाना उसे
बस कुछ पल ही रुके थे
मेरे कदम
उसके करीब और
वक़्त फिर खींच
ले गया मुझे

पिछले साल ही
पलाश को देखते-देखते
रास्ता  गुम जाता था
और अब मैं ही
गुम गया हूँ
रास्ते में ..
.......रजनीश (24.03.12)

Wednesday, September 14, 2011

हकीकत की हकीकत

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कुछ गाँठे ऐसी मिलीं हैं डोर में
जो दिखती तो हैं पर हैं ही नहीं

कुछ बंधन ऐसे बने हैं रस्ते में
जो बांधे रहते तो हैं पर हैं ही नहीं

कुछ दीवारें ऐसी उठीं हैं कमरे में
जो खड़ी मिलती तो हैं पर हैं ही  नहीं

कुछ फूल ऐसे खिले हैं आँगन में
जो खूब महकते तो हैं पर हैं ही नहीं

जिये जाते हैं कुछ पलों को बार-बार
जो सांस  लेते  तो हैं पर हैं ही नहीं
...रजनीश (14.09.2011)

Friday, August 26, 2011

खोने का अर्थशास्त्र

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सूरज की रोशनी में
चमकता एक खूबसूरत फूल
बिखेरता है खुशबू
बस एक स्वार्थ उसका
कि और लग सकें फूल कहीं
पर जबर्दस्ती नहीं करता कभी ,
कल कल बहता झरना
एक बूंद पानी भी
नहीं रखता अपने लिए
पानी का बह जाना
ही है उसका होना
आकाश में उड़ता बादल
एक-एक बूंद बरस जाता है
आखिरी बूंद के साथ
हो जाता है खत्म
पर वो बरसता है 
ताकि बन सके एक बार फिर से
किसी छत पर बरसने के लिए
पर हम कुछ सीख न सके
फूल से , झरने से , बादल से
और बस लड़ते हैं
अपने अस्तित्व
अपने अहम की लड़ाई
कुछ पाने के लिए
पर दरअसल खोने में है  पाना
.....रजनीश (26.08.2011)

Thursday, August 4, 2011

मंज़िल

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आओ उस ओर चलें
जीवन की धारा में
हँसते हुए , दुखों को साथ लिए
आओ चलें ,
थामे हाथ , एक स्वर में गाते
एक ताल पर नाचते पैर
 बैठें उस नाव में और बह चलें
आओ उस ओर चलें

आओ चलें
पार करें मिलकर वो पहाड़
जो फैलाए सीना रोज शाम
सूरज को छिपा लेता है अपने शिखर के पीछे
आओ चलें
लांघें उसे क्यूंकि उसके पीछे ही है
 मीठे पानी की झील
आओ उस ओर चलें

कांटो से होकर खिलखिलाते फूलों की ओर,
आओ चलें उस मंजिल की ओर
जो जीवन में ही समाई है ,
कहीं दूर नहीं बस उन तूफानों और बादलों के बीच,
आओ उस ओर चलें
....रजनीश

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Sunday, April 24, 2011

एक नकली फूल

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मत करो
नकली फूल से नफ़रत
मैंने तो उसे एक, अमिट याद सा
दीवार पे लगाया है ,
ये कब से है
वैसा का वैसा ,
असली फूल तो
कुछ पल का साथी है,
उसे एक टहनी से काटकर
गुलदस्ते में लटकाकर
तिल-तिल करके मारते हो
और  उसकी गंध सूंघते हो ,
फिर फेंक देते हो ,
पता नहीं कैसे होता है
तुम्हें ताजगी का अहसास।
फूल को आखिर क्यूँ नहीं
बिखेरने देते खुशबू बगिया में,
जहां उसके पराग से
बनें कई और घर फूलों के,
नकली फूलों पर अगर धूल चढ़ जाये
तो उसे धोकर साफ कर लेना ,
बिलकुल नए हो जाएंगे,
और कुछ फूल बच जाएँगे ...
...रजनीश (22.04.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....