तन्हाई की हद का कोई हिसाब क्यूँ नहीं
अपनी किस्मत के सवालों का कोई जवाब क्यूँ नहीं
लगी उम्र हमसे दिल का चुराना न हुआ
सिखा दे इश्क़ हमें ऐसी कोई किताब क्यूँ नहीं
गिरा दी दीवार हमने तोड़ फेंके सारे बंधन
फिर भी हाथों में उनके एक छोटा गुलाब क्यूँ नहीं
मुझ गरीब से लेते हो एक पाई का लेखाजोखा
उस अमीर की कारस्तानियों का कोई हिसाब क्यूँ नहीं
भरे हैं मयखाने जिगर खराब सुरूर फीका है
नशा हो ज़िंदगी तुम बनाते इसे शराब क्यूँ नहीं
सुधरो खुद फिर सुधारने चलो औरों को
सभी हों खुश तुम्हारी नज़रों में ऐसा ख़्वाब क्यूँ नहीं
क्या बदलेगी ये दुनिया बदल के क़ानूनों को
बदल जाये इंसान लाते ऐसा इंकलाब क्यूँ नहीं
...रजनीश (23.06.2011)