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Thursday, June 23, 2011

जवाब की तलाश में ...

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तन्हाई की हद का कोई हिसाब क्यूँ नहीं
अपनी किस्मत के सवालों का कोई जवाब क्यूँ नहीं

लगी उम्र   हमसे दिल का चुराना न हुआ
सिखा दे इश्क़ हमें ऐसी कोई किताब क्यूँ नहीं

गिरा दी  दीवार  हमने तोड़ फेंके सारे बंधन
फिर भी   हाथों में उनके एक छोटा गुलाब क्यूँ नहीं

मुझ गरीब से लेते हो एक पाई का लेखाजोखा
उस अमीर की कारस्तानियों का कोई हिसाब क्यूँ नहीं

भरे हैं मयखाने जिगर खराब  सुरूर फीका है
नशा हो ज़िंदगी तुम बनाते इसे शराब क्यूँ नहीं

सुधरो खुद फिर सुधारने चलो औरों को
सभी हों खुश तुम्हारी नज़रों में ऐसा ख़्वाब क्यूँ नहीं

क्या बदलेगी ये दुनिया बदल के क़ानूनों को
बदल जाये इंसान लाते ऐसा इंकलाब क्यूँ नहीं
...रजनीश (23.06.2011)

Thursday, May 19, 2011

सहारे- यादों के

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वो मैं नहीं था
जिसने बर्फीली वादियों में
सुनहली किरणों से चमकती
ज़ुल्फों के साये में
गाया था वो गाना
पर जब भी कानों को
मिलती है उस गाने की आहट
तो पाता हूँ दिल की गहराइयों में ,
मैं गा रहा होता हूँ
कहीं दूर  वादियों में,

वो भीनी सी खुशबू
अब भी है जेहन में
पर उस पल तो नहीं थी
तुम्हारे आस पास
जब तुम्हें देखा था जाते हुए
पता नहीं कब जुड़ गई
तुम्हारी यादों से
जब भी सैर करती
आती है वो खुशबू कहीं से
तुम्हें साथ लिए रहती है

एक आवाज़ जब भी आती है
अतीत में ले जाती है
कभी कोई लम्हा , कभी तो कोई दिन ही
कहीं पहले गुजारा हुआ  लगता है
कभी बचपन की किसी तस्वीर
से बाहर आया हुआ ....

एक स्वाद,
कोई पुरानी कहानी
सुना जाता है
एक स्पर्श और एक पुराना ख़्वाब ...
कभी आईने में देखने पर
आ जाती है अपनी ही याद
खालीपन भी जोड़ लेता है कुछ  यादों को
जब एक अहसास के लिए
जगह बनती है कभी दिल में
तो उससे जुड़ा
टुकड़ा , दिल का चैन
याद आ जाता है 
लोगों की भारी भीड़ में भी ...

यादें सीधी नहीं जुड़ती हमसे
उन्हें जरूरत होती है
एक सहारे या एक बैसाखी की ,
छोटी सी खाली जगह
जो मिल जाए तो फिर से
एक पुराना लम्हा
जी उठता है ...

अब मुझे याद रखना
शायद , तुम्हारे लिए
कुछ आसान हो जाए ...
...रजनीश ( 18.05.11)

Wednesday, May 18, 2011

थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए

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दिन का हर सिरा
वही पुराना लगता है
वही चेहरे वही खबरें
वही रास्ता वही गाड़ी
वही हवा वही धूप
वही रोड़े वही कोड़े
फ्रेम दर फ्रेम
दिन की दास्तां
वही पुरानी लगती है ...

एक सी काली रातों में
कुछ उतनी ही करवटें
नींद तोड़-तोड़ कर आंखे
देखती मकड़जालों से लटके
वही फटे-पुराने ख़्वाब
कभी पर्दे से झाँकता
दिन का वही भूत
रात की भी हर बात
वही पुरानी लगती है ...

एक ही गाना
चलता बार-बार
हर बार झंकृत होता
वही एक तार
फिर भी  उड़ती नहीं
कल की फिक्र धुएँ में
एक सी जलन  हर पल सीने में
नादान दिल का  डर भी
वही पुराना लगता है  ...

चलो छोड़ो कुछ पल इसे
रखो बगल में अपनी गठरी
थोड़ा सुस्ताएँ !
आओ बैठें , एक दूजे को
जरा निहारें ,
कुछ बतियाएँ !
कैसे हो गए !
चलो एक-एक प्याला चाय हो जाए
कुछ ऊब से गए हैं
थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए ....
... रजनीश (17.05.11)
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