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Wednesday, October 28, 2020

जरूरतों का गणित

जिंदगी अकेली नहीं
जिंदगी की साथी है जरूरत
चोली दामन का साथ 
कुछ ऐसा है जैसे 
जिंदगी का दूसरा नाम है जरूरत 

जिंदगी के लिए जिंदा रहना जरूरी है 
जिंदा रहने के लिए बहुत कुछ जरूरी है 
जरूरतों के बिना जिंदगी नहीं 
जिंदगी है तो जरूरी है जरूरत 

जिंदगी एक पहेली है ठीक वैसी
जैसा है जरूरतों का हिसाब किताब 
जरूरतों का गणित 
कितना अजीब है 
जरूरतों का जाल 
जिंदगी का नसीब है 

जरूरतों का जोड़ - घटाव 
जरूरतों का गुणा - भाग 
किताबों में वर्णित नहीं 
जरूरतों का सीधा - सीधा गणित नहीं 

एक जरूरत , 
जरूरत ही नहीं रह जाती 
जब कोई और 
जरूरत आ जाती है 
जिसकी कभी जरूरत ही नहीं थी 
वो कभी पहली जरूरत 
बन जाती है 

एक जरूरत में 
दूसरी जरूरत मिल जाने से 
जरूरत ही खत्म हो जाती है 
कभी कई जरूरतों को 
आपस में जोड़ने से 
एक जरूरत बन जाती है 

जरूरतें पूरी भी होती हैं 
पर जरूरतें खत्म नहीं होतीं
जरूरतें थोड़ी भी लगें तो 
जरूरतें कम नहीं होतीं
 जरूरतों की कीमत होती हैं 
 कुछ जरूरतें बेशकीमती होती हैं

जरूरतों को जानना होता है
कुछ जरूरतों को भुलाना होता है 
जरूरतों को मानना होता है 
कुछ जरूरतों को मनाना होता है 

गणित में 
एक तरफ शून्य होता है 
दूसरी तरफ अनंत 
एक तरफ कुछ नहीं 
दूसरी तरफ सब कुछ पूर्ण 
पर जरूरत का सिद्धांत 
तो अपूर्णता का सिद्धांत है 
क्यूंकि जरूरतें अनंत है  
पर जरूरतें अपूर्ण हैं 
अनंत भी हैं और अपूर्ण भी हैं

जब तक जिंदगी है 
जरूरतें अपूर्ण ही रहती हैं 
जरूरतें ख़तम 
तो जिंदगी ख़तम 

जिंदगी और जरूरत 
दोनों को एक दूसरे की जरूरत है 
एक समीकरण है 
दोनों के बीच 
जिसका हल मिलता नहीं 
गणित की किताबों में

.....रजनीश ( २८.१०.२०२०, बुधवार)

Monday, October 12, 2020

कुछ बातें इन दिनों की


जिंदगी रुक सी गई है
कदम जम से गए हैं 
एक वायरस के आने से
कुछ  पल थम से गए हैं 

कहीं  कब्र नसीब नहीं होती
कोई रातोरात जलाया जाता है
इंसानियत  शर्मसार होती है
उसे एक खबर बनाया जाता है 

कभी होती  नहीं हैं खबरें 
बनाई  जाती हैं
कभी होती नहीं जैसी
दिखाई जाती हैं 

जिसे समझा था दुश्मन
अल्हड़ बचपन का 
बन गया  लॉकडाउन  में
वो जरिया शिक्षण का

पास आने की चाहत
 पर दूर रहने की जरूरत
 किस ने कह दिया जिंदगी से
 मुसीबतें कम हो गई हैं ?

....रजनीश (१२.१०.२०२०, सोमवार)

Friday, October 2, 2020

मुसीबतें

रोज सोता हूं 
कुछ मुसीबतों को सिरहाने रख 
सुबह उठता हूं 
तो साथ हो लेती हैं मुसीबतें 
कुछ खत्म हो जाती हैं
कुछ नई जुड़ जाती हैं 
कुछ बनी रहती हैं साथ लंबे वक्त तक 
मुसीबतें भी रहा करती हैं 
सांसों , यादों और सपनों के साथ 

 मुसीबतें क्यों है इतनी
 एक जिंदगी में
 पग पग पर मुसीबतें 
 एक खत्म नहीं हुई 
 कि दूसरी शुरू
 जिंदगी जैसे बहता हुआ दरिया नहीं
 बल्कि मुसीबतों का पहाड़ हो
 मुसीबतें कुछ यूं जुड़ी रहती हैं 
 जैसे जनम जनम का नाता हो 
 
 
जिंदगी मिलने में मुसीबत
जिंदगी मिल जाने पर मुसीबत
जिंदगी के साथ मुसीबत
जिंदगी के  बाद मुसीबत

कभी धूप मुसीबत 
तो कभी छांव मुसीबत
कभी जंगल मुसीबत
तो कभी गांव मुसीबत 
 
कभी दिन का ना ढलना मुसीबत 
कभी दिन का ढल जाना मुसीबत
रास्ता ना मिलना एक मुसीबत 
कभी रास्ते का मिल जाना ही मुसीबत

एक मुसीबत हो तो मुसीबत 
कोई मुसीबत ना हो तो भी मुसीबत
मुसीबत हल ना होना एक मुसीबत
कभी मुसीबत का हल भी एक मुसीबत

कभी अकेली होती है मुसीबत
तो कभी उसके साथ सहेली
कभी बिन बुलाए चली आती है
कभी बुलाने से आती है मुसीबत

कभी कुछ मिल जाना मुसीबत 
कभी कुछ खो जाना मुसीबत
कभी साथ मुसीबत 
कभी अकेलापन मुसीबत

कुछ मुसीबतों का एहसास नहीं होता
कुछ मुसीबतों की आदत हो जाती है 
कुछ मुसीबतें जीने नहीं देती 
कुछ मुसीबतें जीना सिखा देती हैं

कुछ मुसीबतें झेल लेते हैं हंसते हंसते
कुछ मुसीबतों  से भागते हैं हम 
कुछ मुसीबतें खुशियां देती हैं
कुछ मुसीबतें रुला देती हैं

क्यूं होती हैं मुसीबतें 
ये सवाल ही एक मुसीबत 
फिर लगता है इतनी मुसीबतें है 
तो कोई मकसद तो होना चहिए इनका 

सोचता हूं ,क्या होता गर मुसीबतें ना होती 
जिंदगी एक मुसीबत बन जाती 
मुसीबत तो सांस लेने में भी है
मुसीबत नहीं तो सांस भी थमी

जीवन क्रिया है मुसीबत प्रतिक्रिया है 
जीवन गति मुसीबत प्रतिरोध है 
सांसों के अलावा जो जरूरी है 
जिंदगी के लिए वो है मुसीबतें
सांसें और मुसीबतें  जैसे चोली दामन 
बिना मुसीबतों के नहीं है जीवन 

नाम बुरा लगता है मुसीबत 
पर मुसीबतें बुरी नहीं 
मुसीबतें जरूरी है जिंदगी के लिए
दरअसल मुसीबत कोई मुसीबत ही नहीं !!

............रजनीश (०२ अक्टूबर, २०२०)

Sunday, September 27, 2020

कलम और वायरस

क्यूं नहीं लिखता आजकल ?
यही सोच रहा हूं 
इन दिनों 
कलम चलते चलते रुक जाती है
खो जाता है लिखने का जज्बा कहीं
खयाल ही खो जाते हैं
एक अजीब सा ठहराव 

जिंदगी तो वैसे ही चल रही है 
जैसे पहले थी 
पर इसके हर रंग  पर 
एक बदरंग परत चढ़ गई है 
हर स्वाद में एक कसैलापन आ गया है
जिंदगी के हर रस्ते में 
हर मोड़ पे , हर चौराहे में  
एक जैसे पत्थर बिखरे पड़े हैं 
हर भाव , हर जज्बात 
एक जगह पर जा के रुक जाते हैं 

वायरस के इस वक्त में 
जिंदगी का मतलब 
वायरस की बस्ती से 
बस किसी तरह बच के निकलना,  हो गया है
जैसे यही एक मकसद है जिंदगी का 

पर बहुत से ऐसे भी हैं 
जिनके लिए पेट और छत का सवाल आज भी है
और वो अपने आप को दांव पर 
आज भी लगा रहे हैं 
अपने पेट के लिए 
भूख हरा देती है वायरस के डर को
मजबूरी और जरूरतों का वायरस 
खतरनाक है कोरोना से भी 

गौर से देखता हूं तो
जिंदगी दिखती है 
अब भी चलते 
जिंदगी के रंग अब भी जिंदा हैं 
पत्थर हैं तो रस्ते भी हैं 
जिंदगी रुकी नहीं 
जिंदगी रुकती नहीं 
फिर कलम क्यूं रुके ?
तो चलने लगती है 
कागज के टुकड़े पर 

साथ जिंदगी के 
लिखना जारी रहेगा बदस्तूर 

…........रजनीश (२७.०९.२०२०, रविवार)




Friday, July 7, 2017

मुश्किल और आसान

जिंदगी है मुश्किल
या जिंदगी आसान
कम से कम
ये तय कर पाना
नहीं  आसान
जो करता हूँ कोशिश
इसे आसान बनाने की
ये और मुश्किल
होती चली जाती है
जिन लम्हों के  मुश्किल
होने का होता है डर
वही बन जाते हैं आसान
जो एक के लिए मुश्किल
वो दूजे के लिए आसान
जिदंगी तो बस जिंदगी है
ना मुश्किल ना आसान
ये मुश्किल और आसान का रिश्ता
दरअसल दिलो-दिमाग  से
जोड़ रखा है मैंने
वरना क्या मुश्किल
और क्या आसान
.........रजनीश  (09.07.17)

Tuesday, April 26, 2011

गुलमोहर और पलाश

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रोज गुजरता हूँ  इधर से
वही रास्ता  हर दिन जैसे
एक चक्कर में घूमती जिंदगी,
और मिलता है वही पलाश 
जो इतराता था कल तक
अपने मदमस्त फूलों पर,
अब  मायूस खड़ा रहता है
खोया सा पेड़ों के झुंड में,
कभी मैंने भी की थी कोशिश
कि उसका कुछ रंग चढ़े मुझ पर ,
आज वो खुद दिखता बदरंग , बैचेन
जैसे खो गई  हो उसकी पहचान,
दिन तो फिरे हैं अभी
उस घमंडी गुलमोहर के,
जो चार कदम दूर ही मिलता है,
पलाश को मुँह चिढ़ाता
पुराना बदला लेता,
चटख लाल हुआ जा रहा है
जैसे  ढेरों सूरज उगे हों,
इसी रास्ते से गुजरती है एक गाड़ी
पलाश पढ़ता है गाड़ी पर लिखी इबारत
'दूसरे की दौलत देखकर हैरान न हो
ऊपर वाला तुझे भी देगा परेशान न हो',
मैंने दोनों से ही कहा, पगलों!
व्यर्थ हो जलते , व्यर्थ ही कुढ़ते
क्यों भूलते मौसम एक दिन
पतझड़ का भी  आता है
पर गम न करो  वो  झोली में
फिर से एक बसंत दे जाता है ...
...रजनीश( 26.04.11)

Monday, March 7, 2011

जड़त्व

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कई  बार  मरा,
और फिर से  जिया हूँ मैं,
पर  हर बार ही ज़िंदगी
वही रही पुरानी,
बस जैसे पत्ते झड़ गए
और फिर से आ गए,
कभी कुछ  घोसलें बन गए मुझ पर,
कभी कोई राहगीर
दो पल को रुक गया मेरी छाँव में,
कभी कोई फूल ले गया,
कभी किसी ने फल तोड़ा,
किसी को कांटे लगे,
हवाओं ने कई बार झुकाया मुझे,
साल दर साल
परतें चढ़ती रहीं मुझ पर ,
और अब तो बहुत विस्तार हो गया है मेरा,
मैंने सूरज और चंदा दोनों की किरणों को जगह दी है ,
और चाँदनी को भी दिया हैं बिछौना,
मेरे पास से गुजरती रही हैं ढेरों ज़िंदगानियां,
पर ठिकाना किसी ने नहीं बनाया यहाँ,
मुझे पता है कि, तुम
रहते हो दूसरे किनारे पर ,
क्या करूँ , नहीं पहुँच सकता तुम तक,
समय के साथ चलते-चलते
मेरी जड़े भी बहुत भीतर तक चली गईं
और अब भी वहीं खड़ा हूँ
जहां कभी  शायद
तुमने ही तो लगाया था मुझे ...
कम से कम देख तो सकते हो  ...
कभी समय निकाल तुम ही चले आते इधर ...
  ....रजनीश (07.03.2011)

Sunday, February 6, 2011

आस

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एक दिन, चढ़ गया है..
एक पत्ता, झड़ गया है..
एक दोस्ती,  टूट गयी है..
एक डोर, छूट गयी है..
एक पता, गुम गया है..
एक रास्ता, रुक गया है..
एक रंग , धुल गया है..
एक बंधन, खुल गया है..

एक कमरा, खाली है..
एक क़रार, जाली है..
एक किस्मत, रूठी है..
एक मुस्कान, झूठी है..
एक रिश्ता, अज़ीब है..
एक दिल, गरीब है..
एक डगर, अनजानी है..
एक सौदा, बेमानी है..
एक रात , बहुत लंबी है..
एक बात , बहुत लंबी है..
...............
...............
एक मयखाना , वहाँ साक़ी है..
एक जाम , अभी बाकी है..
एक सपना, अधूरा है..
एक पन्ना,  कोरा है..
एक आस , अभी ज़िंदा है..
एक इंसान, शर्मिंदा है..
एक धड़कन, मचलती है..
एक ज़िंदगी, चलती है ..…..
………………..रजनीश (06.02.2011)

Sunday, January 9, 2011

कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....

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आप इसे यहाँ मेरी आवाज में सुन सकते हैं ....
कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
जो रहते हैं  बहुत दूर, शब्दों से ,
पर उन्हे छूने  कहीं जाना नहीं होता,
बस यहीं खड़े ,
करना होता है बंद आंखे,
और वो खुद बंधे चले आते हैं ।

कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
जो  नहीं रहते हैं अब यहाँ ,
पर मरते नहीं  कभी, न बिछुड़ते हैं,
साल दर साल, 
जब भी पलाश पर फूल खिलता है ,
वो खुद मिलकर चले जाते हैं ।

कुछ अहसास ऐसे होते हैं....
जो बंधते नहीं किसी धागे से,
जिनका एक चेहरा नहीं होता ,
बस दो पल फुर्सत के निकाल,
करनी होती है बातें आइने से,
वो खुद ही सामने उभर आते हैं।

कुछ अहसास ऐसे होते हैं....
जो कभी जनम नहीं पाते ,
जिनकी किलकारियाँ सुनाई नहीं देती,
ज़िंदगी की इस दौड़ में,
इससे पहले कि  आ सकें  ऊपर,
वो पैरों तले रौंद दिये जाते हैं ।
............रजनीश (09.01.11)

Friday, December 31, 2010

पोर्ट्रेट-2

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साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी...
 
फुट पाथ पर ,
दीवार सहारे ,
भरी दुपहरी,
धूप में तपती ,
बरसों से बेख़बर पड़ी थी
एक पुरानी ज़िंदगी....
 
धंसा  पेट पीठ में,
और फैली थी छाप ,
गुजरे बरसों की
सारे जिस्म पर,
और वक्त की झुर्रियों में
चेहरा उसका छुप गया था,
भीड़ में खोई और बेनाम
एक पुरानी ज़िंदगी .....
 
सिरहाने के थैले से
झाँक रहा था एक खिलौना ,
खाली डिबिया, एक फ्रेम
जिसमें तस्वीर नहीं थी,
चिपकी थीं कुछ यादें
सपनों की, पैबंदों में ,
बेशुमार दौलत सम्हालती ,
एक पुरानी ज़िंदगी.....
 
शब्द सारे किसी कोठरी में ,
शायद उसके छूट गए थे ,
एक शब्द "बेटा" बतौर निशानी
उसके साथ बचा था  ....
हाथ से लगी एक कटोरी
आँखों में कुछ पानी भी था...
पीकर जिसको काम चलाती
एक पुरानी ज़िंदगी...
 
आवाज़ें नहीं पहुँचती उस तक,
जैसे बहुत दूर आ गई
दिखती नहीं किसी को
न उसे कोई नजर आता था
सत्तर सालों की कहानी ,
लाठी संग वहाँ पड़ी थी,
देख आसमां किसे बुलाती
एक पुरानी ज़िंदगी....
 
साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी......
............रजनीश (31.12.2010)

Tuesday, December 28, 2010

हस्तरेखा

रेखा -ओ- रेखा ,
मैंने तुझको देखा......
तू धारा है इक नदिया की
निकली तू मणिबंध से
और पहुँच गयी अनामिका तक-पर   है क्यूँ  तू कटी-फटी ?

रेखा-ओ-रेखा ,
मैंने तुझको देखा..............
तू है इक पगडंडी -
गुरु पर्वत की तलहटी से 
शुक्र के घर का  लगाती चक्कर
पूरी जमीन पार कर गई-पर कितना हूँ जिंदा मैं  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा......
तू  लकीर है  इक जख्म की
देख तुझे  लगता है जैसे ,
 हृदय पर तू   कटार से खिंची
तुझमें तो धड़कने नहीं , हंसने रोने का हिसाब है

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा....
तू तो रेल की पटरी लगती
बना रखा है इक सम अंतर ,
दिल तक जाती रेखा से
पता नहीं तुम पर चलूँ या  गुजरूँ बगल के रस्ते से।

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा .....
जैसे लाइन खिचीं कागज पर ...
नहीं थी  कल  तू  यहाँ
आज क्यों यहाँ आई है  ?
मैंने क्या  बुलाया  तुम्हें या खुद ही निकल आई है  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा ......
है तू  रेत का समंदर,
अपने कदमों की छाप देखता हूँ तुम पर  
पर एक छोर तेरा अब तक कोरा ...
पहुंचूँ वहाँ तक तो क्या तू  मिलेगी  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा
बना रही  जाल मिल और कई रेखाओं से
किसने खींचा है तुझे ,
क्या मैं तुझे  मिटा न पाऊँगा
खड़े कर ले अवरोध मैं तो पार निकाल कर जाऊंगा
......रजनीश (28.12.2010)

Wednesday, December 15, 2010

भविष्यफल


 तुमने कभी
धूप का स्वाद चखा है ?
नहीं ...

तुमने कभी
हवा को पढ़ा है ?
नहीं...

तुमने कभी
महसूस की है आग की ठंडक ?
नहीं ....

तुमने कभी
लहरों को देखा है, रोते ?
नहीं ...

तुमने कभी
त्रिकोण में उगते चौथे कोने से बातें की है ?
नहीं ....


तुमने कभी
बहस की है , परछाईं से?
नहीं ...

तुमने कभी
अंधेरे को हथेली पर रखा है ?
नहीं ...

तुमने कभी
किरणों को बंद किया है डब्बे में ?
नहीं ...

तुमने कभी
आंसुओं के घर में कदम रखा है?
नहीं ....

क्या कहूँ मित्र,
किस्मत वाले हो ...
फूल का पता नहीं ,
कांटे नहीं
लगेंगे तुम्हें
मजे में
कटेगी
तुम्हारी ज़िंदगी ....
....रजनीश (15.12.10) 

एहसास


जिसके इंतजार में
मरते हैं अनगिनत बरस ,

उन कुछ पलों में
गुजर जाती है,
एक पूरी जिंदगी ।

और फिर
रह जाते है
एहसास
सँजोकर रखने ,

बटोरना हो,
तो ढूँढना पड़ता है इन्हें
और  थामना होता है कसकर
नहीं तो,
चंचल होते हैं  -
फिसल जाते हैं ।

ये नहीं होते विलीन
पाँच तत्वों में ,
और रह जाते हैं
कागज पर खिंची लाइन में  ,
छत की मुंडेर पर ,
नहीं तो फिर
डोर पर टंगे
धूप सेंकते
................................रजनीश ( 14.12.2010)

Monday, December 6, 2010

चाहत

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सोचता हूँ,
क्यों चाहूँ तुम्हें,
आखिर क्यों ?
चाहत , ये क्या है ?
पूछा जिंदगी से ...
तुझे कुछ पता है ?
021209 204




हँस के कहा उसने,
इसी बात से परेशा है ? 
बस इन चाहत के फूलों को हटा दे,
और इन फूलों की बगिया को मिटा दे ...



021209 136उखाड़ फेंका मैंने उन्हे
और ज़िंदगी को निहारा
पर उस जगह कुछ और ही समा था
खाली जमीन और खुला आसमाँ था ...
बस कुछ टुकड़े जिंदगी के बिखरे हुए थे....
टूटी डालों और पत्तों संग जमीं पर पड़े थे


021209 015



उखड़ती साँसों से उसकी आवाज आई ,
हँसते हुए अपनी दास्तां सुनाई ...
बिखरी हूँ इनमे मैं कैसे दिखूंगी
मैं जन्मी थी इनमे और इन संग मरूँगी ...
.....रजनीश

Sunday, December 5, 2010

बदलाव

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है जिंदगी  वही ,पर  मायने बदल गए,
हैं चेहरे वही पुराने पर आईने बदल गए॰

है सूरज वही है चाँद वही , है दिन वही है रात वही,
है  दुनिया वही , पर दुनियादारों के ठिकाने  बदल गए॰




DSCN1439

है साकी वही है शराब वही, है पैमाना औ मयखाना वही 
है हमप्याला वही , नशे के पर अंदाज बदल गए॰

वही पैर वही जिस्म, वही ताकत वही हिम्मत,
है दौड़ का जज़्बा वही, पर दौड़ के मैदान बदल गए॰




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है शोहरत वही, है शराफत वही, है इज्ज़त औ मोहब्बत वही,
कायम रही है मंजिलें पर रास्ते बदल गए॰

है सच वही है झूठ वही, है पुण्य वही है पाप वही,
है  धरम औ इंसाफ वही, पर इनके तराजू बदल गए ,

.......रजनीश (13.12.93)

Tuesday, November 30, 2010

खोज

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कोशिश करता रहता हूँ ,

खुद को जानने की,

लगा हूँ एक कोशिश में ,

खुद को समझने की,

सब करते होंगे ये,

जो जिंदा है ,

मरे हुए नहीं करते,

कोशिश का ये रास्ता ,

दरअसल भरा है काँटों से ,

 

बेसिर पैर और अनजानी सी जिंदगी

से बेहतर हैं ये,

जिनकी चुभन से उड़ती है नींद और खुल जाती है आँख ,

ये कांटे दिखाते हैं रास्ता ,

देते हैं हौसला ,

और भरते हैं मुझमें आशा ,

और आगे जाने की और

खुद से बेहतर हो जाने की......

....रजनीश

Monday, November 29, 2010

उन्मुक्तता

 

021209 037

जब भी अपने में झाँका है,

पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;

कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,

जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी

021209 214

बुनते है जाल सभी,

बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,

तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,

इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,

इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;

सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....

Thursday, November 25, 2010

व्यथा

IMAG0638

















मैंने देखी हैं ,एक जोड़ा आँखें ,
  उम्र में छोटी, नादां, चुलबुली,
कौतूहल से भरी ,
पुराने चीथड़ों की गुड़िया
 खरोंच लगे कंचों
 पत्थर के कुछ टुकड़ों
 और मिट्टी के खिलौनों में बसी
 कुछ तलाशती आँखें
 भोली सी, प्यारी सी ,  
 दूर खड़ी , मुंह फाड़े , अवाक सब देखतीं हैं
 ... कितनी  हसीन दुनिया                                            
इन आँखों मे बनते कुछ  आँसू चाहत  के      
निकलते नहीं बाहर
और  आँखें ही अपना लेती हैं  उन्हें ..               
और मुड़कर घुस जाती हैं
 फिर उन चीथड़ों पत्थरों और काँच के टुकड़ों में                   
........रजनीश

अपना सा

DSC00506
लगा था कोई,
अपना सा / हिस्सा खुद का लगा था....
देखा था उसे -भीड़ में /
नया था,पर लग रहा पुराना था/
जैसे खोया था कभी पहले कहीं ,
अब मिला था ....
जैसे टूटा था कभी पहले कहीं ,
अब आ जुड़ा था
अपना ही था जैसे या दूसरा अपने जैसा,
या फिर था कोई हिस्सा किसी सपने का
पर लगा था अपना /
ता जिंदगी हिस्से रहते हैं बिखरते / टूटते / जुड़ते / मिलते / बिछुड़ते .....
बिखरे टूट कर गिरे हिस्से एक जगह नहीं मिलते
कभी या कहूँ अक्सर कहीं पर भी नहीं .....
सारे हिस्से कभी साथ साथ नहीं होते ,
हिस्सों को जुड़ना होता है सफर में ...
हिस्से बटोरने और जोड़ने में
खुद बंटते जाते हैं हिस्सों में ,
और ढूंढते रहते हैं हिस्सा कोई अपना .....
DSC00486

....रजनीश

मंज़िल

021209 206

आओ उस ओर चलें
जीवन की धारा में
हँसते हुए , दुखों को पीछे छोड़ते
आओ चलें ,
थामे हाथ , एक स्वर में गाते
और एक ताल पर नाचते पैर
आओ उस ओर चलें

आओ चलें
पार करें मिलकर वो पहाड़
जो फैलाए सीना रोज शाम
सूरज को छिपा लेता है अपने शिखर के पीछे
आओ चलें
लांघें उसे क्यूंकि उसके पीछे ही है
 मीठे पानी की झील
आओ उस ओर चलें

कांटो से होकर खिलखिलाते फूलों की ओर,
आओ चलें उस मंजिल की ओर
जो जीवन में ही समाई है ,
कहीं दूर नहीं बस उन तूफानों और बादलों के बीच,
आओ उस ओर चलें
....रजनीश

DSCN1762
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....