Wednesday, October 28, 2020
जरूरतों का गणित
Monday, October 12, 2020
कुछ बातें इन दिनों की
Friday, October 2, 2020
मुसीबतें
Sunday, September 27, 2020
कलम और वायरस
Friday, July 7, 2017
मुश्किल और आसान
जिंदगी है मुश्किल
या जिंदगी आसान
कम से कम
ये तय कर पाना
नहीं आसान
जो करता हूँ कोशिश
इसे आसान बनाने की
ये और मुश्किल
होती चली जाती है
जिन लम्हों के मुश्किल
होने का होता है डर
वही बन जाते हैं आसान
जो एक के लिए मुश्किल
वो दूजे के लिए आसान
जिदंगी तो बस जिंदगी है
ना मुश्किल ना आसान
ये मुश्किल और आसान का रिश्ता
दरअसल दिलो-दिमाग से
जोड़ रखा है मैंने
वरना क्या मुश्किल
और क्या आसान
.........रजनीश (09.07.17)
Tuesday, April 26, 2011
गुलमोहर और पलाश
रोज गुजरता हूँ इधर से
वही रास्ता हर दिन जैसे
एक चक्कर में घूमती जिंदगी,
और मिलता है वही पलाश
जो इतराता था कल तक
अपने मदमस्त फूलों पर,
अब मायूस खड़ा रहता है
खोया सा पेड़ों के झुंड में,
कभी मैंने भी की थी कोशिश
कि उसका कुछ रंग चढ़े मुझ पर ,
आज वो खुद दिखता बदरंग , बैचेन
जैसे खो गई हो उसकी पहचान,
दिन तो फिरे हैं अभी
उस घमंडी गुलमोहर के,
जो चार कदम दूर ही मिलता है,
पलाश को मुँह चिढ़ाता
पुराना बदला लेता,
चटख लाल हुआ जा रहा है
जैसे ढेरों सूरज उगे हों,
इसी रास्ते से गुजरती है एक गाड़ी
पलाश पढ़ता है गाड़ी पर लिखी इबारत
'दूसरे की दौलत देखकर हैरान न हो
ऊपर वाला तुझे भी देगा परेशान न हो',
मैंने दोनों से ही कहा, पगलों!
व्यर्थ हो जलते , व्यर्थ ही कुढ़ते
क्यों भूलते मौसम एक दिन
पतझड़ का भी आता है
पर गम न करो वो झोली में
फिर से एक बसंत दे जाता है ...
Monday, March 7, 2011
जड़त्व
Sunday, February 6, 2011
आस
Sunday, January 9, 2011
कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
आप इसे यहाँ मेरी आवाज में सुन सकते हैं ....
कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
जो रहते हैं बहुत दूर, शब्दों से ,
पर उन्हे छूने कहीं जाना नहीं होता,
बस यहीं खड़े ,
करना होता है बंद आंखे,
और वो खुद बंधे चले आते हैं ।
कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
जो नहीं रहते हैं अब यहाँ ,
पर मरते नहीं कभी, न बिछुड़ते हैं,
साल दर साल,
जब भी पलाश पर फूल खिलता है ,
वो खुद मिलकर चले जाते हैं ।
कुछ अहसास ऐसे होते हैं....
जो बंधते नहीं किसी धागे से,
जिनका एक चेहरा नहीं होता ,
बस दो पल फुर्सत के निकाल,
करनी होती है बातें आइने से,
वो खुद ही सामने उभर आते हैं।
कुछ अहसास ऐसे होते हैं....
जो कभी जनम नहीं पाते ,
जिनकी किलकारियाँ सुनाई नहीं देती,
ज़िंदगी की इस दौड़ में,
इससे पहले कि आ सकें ऊपर,
वो पैरों तले रौंद दिये जाते हैं ।
Friday, December 31, 2010
पोर्ट्रेट-2
साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी...
फुट पाथ पर ,
दीवार सहारे ,
भरी दुपहरी,
धूप में तपती ,
बरसों से बेख़बर पड़ी थी
एक पुरानी ज़िंदगी....
धंसा पेट पीठ में,
और फैली थी छाप ,
गुजरे बरसों की
सारे जिस्म पर,
और वक्त की झुर्रियों में
चेहरा उसका छुप गया था,
भीड़ में खोई और बेनाम
एक पुरानी ज़िंदगी .....
सिरहाने के थैले से
झाँक रहा था एक खिलौना ,
खाली डिबिया, एक फ्रेम
जिसमें तस्वीर नहीं थी,
चिपकी थीं कुछ यादें
सपनों की, पैबंदों में ,
बेशुमार दौलत सम्हालती ,
एक पुरानी ज़िंदगी.....
शब्द सारे किसी कोठरी में ,
शायद उसके छूट गए थे ,
एक शब्द "बेटा" बतौर निशानी
उसके साथ बचा था ....
हाथ से लगी एक कटोरी
आँखों में कुछ पानी भी था...
पीकर जिसको काम चलाती
एक पुरानी ज़िंदगी...
आवाज़ें नहीं पहुँचती उस तक,
जैसे बहुत दूर आ गई
दिखती नहीं किसी को
न उसे कोई नजर आता था
सत्तर सालों की कहानी ,
लाठी संग वहाँ पड़ी थी,
देख आसमां किसे बुलाती
एक पुरानी ज़िंदगी....
साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी......
Tuesday, December 28, 2010
हस्तरेखा
मैंने तुझको देखा......
तू धारा है इक नदिया की
निकली तू मणिबंध से
और पहुँच गयी अनामिका तक-पर है क्यूँ तू कटी-फटी ?
रेखा-ओ-रेखा ,
मैंने तुझको देखा..............
तू है इक पगडंडी -
गुरु पर्वत की तलहटी से
शुक्र के घर का लगाती चक्कर
पूरी जमीन पार कर गई-पर कितना हूँ जिंदा मैं ?
रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा......
तू लकीर है इक जख्म की
देख तुझे लगता है जैसे ,
हृदय पर तू कटार से खिंची
तुझमें तो धड़कने नहीं , हंसने रोने का हिसाब है
रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा....
तू तो रेल की पटरी लगती
बना रखा है इक सम अंतर ,
दिल तक जाती रेखा से
पता नहीं तुम पर चलूँ या गुजरूँ बगल के रस्ते से।
रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा .....
जैसे लाइन खिचीं कागज पर ...
नहीं थी कल तू यहाँ
आज क्यों यहाँ आई है ?
मैंने क्या बुलाया तुम्हें या खुद ही निकल आई है ?
रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा ......
है तू रेत का समंदर,
अपने कदमों की छाप देखता हूँ तुम पर
पर एक छोर तेरा अब तक कोरा ...
पहुंचूँ वहाँ तक तो क्या तू मिलेगी ?
रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा
बना रही जाल मिल और कई रेखाओं से
किसने खींचा है तुझे ,
क्या मैं तुझे मिटा न पाऊँगा
खड़े कर ले अवरोध मैं तो पार निकाल कर जाऊंगा
Wednesday, December 15, 2010
भविष्यफल
धूप का स्वाद चखा है ?
नहीं ...
तुमने कभी
हवा को पढ़ा है ?
नहीं...
तुमने कभी
महसूस की है आग की ठंडक ?
नहीं ....
तुमने कभी
लहरों को देखा है, रोते ?
नहीं ...
तुमने कभी
त्रिकोण में उगते चौथे कोने से बातें की है ?
नहीं ....
तुमने कभी
बहस की है , परछाईं से?
नहीं ...
तुमने कभी
अंधेरे को हथेली पर रखा है ?
नहीं ...
तुमने कभी
किरणों को बंद किया है डब्बे में ?
नहीं ...
तुमने कभी
आंसुओं के घर में कदम रखा है?
नहीं ....
क्या कहूँ मित्र,
किस्मत वाले हो ...
फूल का पता नहीं ,
कांटे नहीं
लगेंगे तुम्हें
मजे में
कटेगी
तुम्हारी ज़िंदगी ....
एहसास

जिसके इंतजार में
मरते हैं अनगिनत बरस ,
उन कुछ पलों में
गुजर जाती है,
एक पूरी जिंदगी ।
और फिर
रह जाते है
एहसास
सँजोकर रखने ,
बटोरना हो,
तो ढूँढना पड़ता है इन्हें
और थामना होता है कसकर
नहीं तो,
चंचल होते हैं -
फिसल जाते हैं ।
ये नहीं होते विलीन
पाँच तत्वों में ,
और रह जाते हैं
कागज पर खिंची लाइन में ,
छत की मुंडेर पर ,
नहीं तो फिर
डोर पर टंगे
धूप सेंकते
................................रजनीश ( 14.12.2010)
Monday, December 6, 2010
चाहत
सोचता हूँ,
क्यों चाहूँ तुम्हें,
आखिर क्यों ?
चाहत , ये क्या है ?
पूछा जिंदगी से ...
तुझे कुछ पता है ?
हँस के कहा उसने,
इसी बात से परेशा है ?
बस इन चाहत के फूलों को हटा दे,
और इन फूलों की बगिया को मिटा दे ...
और ज़िंदगी को निहारा
पर उस जगह कुछ और ही समा था
खाली जमीन और खुला आसमाँ था ...
बस कुछ टुकड़े जिंदगी के बिखरे हुए थे....
टूटी डालों और पत्तों संग जमीं पर पड़े थे
उखड़ती साँसों से उसकी आवाज आई ,
हँसते हुए अपनी दास्तां सुनाई ...
बिखरी हूँ इनमे मैं कैसे दिखूंगी
मैं जन्मी थी इनमे और इन संग मरूँगी ...
Sunday, December 5, 2010
बदलाव
है जिंदगी वही ,पर मायने बदल गए,
हैं चेहरे वही पुराने पर आईने बदल गए॰
है सूरज वही है चाँद वही , है दिन वही है रात वही,
है दुनिया वही , पर दुनियादारों के ठिकाने बदल गए॰
Tuesday, November 30, 2010
खोज
कोशिश करता रहता हूँ ,
खुद को जानने की,
लगा हूँ एक कोशिश में ,
खुद को समझने की,
सब करते होंगे ये,
जो जिंदा है ,
मरे हुए नहीं करते,
कोशिश का ये रास्ता ,
दरअसल भरा है काँटों से ,
बेसिर पैर और अनजानी सी जिंदगी
से बेहतर हैं ये,
जिनकी चुभन से उड़ती है नींद और खुल जाती है आँख ,
ये कांटे दिखाते हैं रास्ता ,
देते हैं हौसला ,
और भरते हैं मुझमें आशा ,
और आगे जाने की और
खुद से बेहतर हो जाने की......
....रजनीश
Monday, November 29, 2010
उन्मुक्तता
जब भी अपने में झाँका है,
पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;
कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,
जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी
बुनते है जाल सभी,
बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,
तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,
इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,
इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;
सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....
Thursday, November 25, 2010
व्यथा
मैंने देखी हैं ,एक जोड़ा आँखें ,
उम्र में छोटी, नादां, चुलबुली,
कौतूहल से भरी ,
पुराने चीथड़ों की गुड़िया
खरोंच लगे कंचों
पत्थर के कुछ टुकड़ों
और मिट्टी के खिलौनों में बसी
कुछ तलाशती आँखें
भोली सी, प्यारी सी ,
दूर खड़ी , मुंह फाड़े , अवाक सब देखतीं हैं
... कितनी हसीन दुनिया
इन आँखों मे बनते कुछ आँसू चाहत के
निकलते नहीं बाहर
और आँखें ही अपना लेती हैं उन्हें ..
और मुड़कर घुस जाती हैं
फिर उन चीथड़ों पत्थरों और काँच के टुकड़ों में
अपना सा
लगा था कोई,
अपना सा / हिस्सा खुद का लगा था....
देखा था उसे -भीड़ में /
नया था,पर लग रहा पुराना था/
जैसे खोया था कभी पहले कहीं ,
अब मिला था ....
जैसे टूटा था कभी पहले कहीं ,
अब आ जुड़ा था
अपना ही था जैसे या दूसरा अपने जैसा,
या फिर था कोई हिस्सा किसी सपने का
पर लगा था अपना /
ता जिंदगी हिस्से रहते हैं बिखरते / टूटते / जुड़ते / मिलते / बिछुड़ते .....
बिखरे टूट कर गिरे हिस्से एक जगह नहीं मिलते
कभी या कहूँ अक्सर कहीं पर भी नहीं .....
सारे हिस्से कभी साथ साथ नहीं होते ,
हिस्सों को जुड़ना होता है सफर में ...
हिस्से बटोरने और जोड़ने में
खुद बंटते जाते हैं हिस्सों में ,
और ढूंढते रहते हैं हिस्सा कोई अपना .....
....रजनीश
मंज़िल
आओ उस ओर चलें
जीवन की धारा में
हँसते हुए , दुखों को पीछे छोड़ते
आओ चलें ,
थामे हाथ , एक स्वर में गाते
और एक ताल पर नाचते पैर
आओ उस ओर चलें
आओ चलें
पार करें मिलकर वो पहाड़
जो फैलाए सीना रोज शाम
सूरज को छिपा लेता है अपने शिखर के पीछे
आओ चलें
लांघें उसे क्यूंकि उसके पीछे ही है
मीठे पानी की झील
आओ उस ओर चलें
कांटो से होकर खिलखिलाते फूलों की ओर,
आओ चलें उस मंजिल की ओर
जो जीवन में ही समाई है ,
कहीं दूर नहीं बस उन तूफानों और बादलों के बीच,
आओ उस ओर चलें