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Sunday, January 23, 2011

पोर्ट्रेट -3 (आत्मज्ञान!)

021209 229
जब भी उस राह से गुजरता हूँ,
वो मिलता है  ,
जिसकी दुनिया, उस एक खंबे से कुछ दूर 
जाकर  ही खत्म हो जाती है ,
मेरा भी फैलाव कितना कम है ,
मैं  भी तो एक लकीर पर चलता
बस एक छोर से दूसरे छोर को नापता रहता हूँ,
उस लकीर से बाहर कहाँ हूँ मैं ?

कल जब गुजरा था उसके करीब से,
तो उसके बदन की बदबू और चमड़ी पे चिपकी धूल की परतों
से लगा जैसे वो सदियों से नहीं नहाया,
जब पलटा और देखा अपने हाथ से
खुद के चेहरे को रगड़कर , कितनी कालिख थी,
मैंने देखा मेरे सिर पर कितना कूड़ा लदा है ,
और कीचड़ में खड़ा हूँ मैं  ,

फटे थे उसके कपड़े, झांक रही थी उसकी हड्डियाँ ,
अधनंगा , परत दर परत कपड़े लपेटे ,
पर जो खुला सो खुला ही था, कपड़े हारे हुए बस लटके थे ...
मैंने देखा मेरे कपड़े भी तो पारदर्शी हैं ,
कुछ नहीं छिप रहा उनसे , मुझे लगा जैसे
अपने कपड़ों पर किसी वृत्तान्त की तरह लिखा हुआ हूँ मैं ,

न वो किसी की बाट जोहता मिला कभी ,
न किसी और को देखा उसकी फिक्र करते ,
बस लोहा हो चुकी दाढ़ी पर हाथ फेरते
आसमान से पता नहीं क्या चुनता रहता है,
मैंने पाया मेरा इंतजार भी किसी को नहीं,
मेरे फिक्रमंद, दिल का हाल नहीं पूछते
क्योंकि दिल दुखाना नहीं चाहते ,
और उड़ना मेरी आदत है , 
इसलिए जब वो कुछ चुनता है आसमान में,
तो कई बार मेरे  पंख टकराए हैं उससे ,

उसके चेहरे पर एक विराम दिखता है,
कोई भाव आते-जाते नज़र नहीं आए कभी,
बस ,वो कभी नीचे देख मुस्कुरा देता है ,
मैं भी कभी कभी मुंह छुपा रो लेता हूँ ,
हँसता भी हूँ पर वो एहसास अक्सर गुम जाते हैं ,
उसने कुछ लकड़ियों से एक घर बनाया है
पर इतना छोटा कि खुद तो बाहर ही रहता है ,
मैंने देखा मेरा घर भी कितना छोटा है
ज्यादा लोग उसमें समाते ही नहीं,मैं भी पूरा नहीं समाता ,
मेरे पास अपने लिए ही जगह नहीं है...
उसे मैंने कभी कुछ कहते देखा , सुना नहीं
और मेरे कहे का भी तो कोई मतलब नहीं होता अक्सर...

उसके सामने से रोज गुजर कर ये जाना कि,
जो होता है वो मुझे भी दिखता नहीं, जो दिखता है मैं समझता नहीं ,
जो समझता हूँ वो मैं भी कहता नहीं, जैसा कहता हूँ वो करता नहीं,
जो करता हूँ उसका प्रयोजन नहीं समझता , कहाँ जा रहा हूँ पता भी नहीं ....
उसे रोज-रोज खंबे के पास
देखते-देखते अब ये यकीन हो गया है,
मुझे, कि हम दोनों पागल हैं ...
कम से कम मैं तो जरूर हूँ ....
...रजनीश (23.01.2011)

Friday, December 31, 2010

पोर्ट्रेट-2

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साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी...
 
फुट पाथ पर ,
दीवार सहारे ,
भरी दुपहरी,
धूप में तपती ,
बरसों से बेख़बर पड़ी थी
एक पुरानी ज़िंदगी....
 
धंसा  पेट पीठ में,
और फैली थी छाप ,
गुजरे बरसों की
सारे जिस्म पर,
और वक्त की झुर्रियों में
चेहरा उसका छुप गया था,
भीड़ में खोई और बेनाम
एक पुरानी ज़िंदगी .....
 
सिरहाने के थैले से
झाँक रहा था एक खिलौना ,
खाली डिबिया, एक फ्रेम
जिसमें तस्वीर नहीं थी,
चिपकी थीं कुछ यादें
सपनों की, पैबंदों में ,
बेशुमार दौलत सम्हालती ,
एक पुरानी ज़िंदगी.....
 
शब्द सारे किसी कोठरी में ,
शायद उसके छूट गए थे ,
एक शब्द "बेटा" बतौर निशानी
उसके साथ बचा था  ....
हाथ से लगी एक कटोरी
आँखों में कुछ पानी भी था...
पीकर जिसको काम चलाती
एक पुरानी ज़िंदगी...
 
आवाज़ें नहीं पहुँचती उस तक,
जैसे बहुत दूर आ गई
दिखती नहीं किसी को
न उसे कोई नजर आता था
सत्तर सालों की कहानी ,
लाठी संग वहाँ पड़ी थी,
देख आसमां किसे बुलाती
एक पुरानी ज़िंदगी....
 
साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी......
............रजनीश (31.12.2010)

Monday, December 27, 2010

पोर्ट्रेट-1

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आइनों सी टाइल्स  पर पड़ती
बड़े फानूसों की  रोशनी में,
उसका प्रतिबिंब नज़र आया मुझे ,
लकड़ी से बनी एक डिज़ाइनर कुर्सी
पर उसे बैठे देखा था ...
एक भोली सी - कुछ अधेड़ सी लड़की...
स्वर्ग सदृश , सुवासित माहौल में,
सुमधुर संगीत
खूबसूरत दीवालों से टकराकर ,
सतरंगी रोशनियों के साथ
फैला था हर तरफ,  प्रस्तुत करता एक नृत्य ...
वैभवशाली चहल-पहल में ....एक  आनंदोत्सव चल रहा था ...
उस मॉल में ....

मैं मौजूद था वहाँ इसका एक-एक पल जीने...
और मेरी नजर पड़ी थी उस पर, 
पर नजरें उसकी , पता नहीं कहाँ
अटकी हुई थीं,
उसके सामने धरी कॉफी टेबल तो खाली थी ,
फिर पता नहीं उसकी आंखे क्या पी रही थीं ,
वो तो हिल भी नहीं रही थी कुर्सी से ,
पर मुझे लगा की वो चल रही थी,
इधर-उधर गलियारे में ,
थिरकती हुई नृत्य भी कर रही थी...
हाथ तो खाली थे उसके और
उनमें से एक तो ठोड़ी पर ही था,
पर मुझे लग रहा था जैसे वो
तैरती  रोशनी को थामने की कोशिश कर रही थी,  
फिर एक शून्य भी दिखा था चेहरे पर लटका ,

तब  मैं अपने घुटनों पर हाथ टिकाकर
कुछ करीब से देखने लगा था उसे ,
वो खूबसूरत लग रही थी –एक
इंसान की तरह...
शायद किसी ने सराहा नहीं उसे कभी....
आँखों में भंवर थे कुछ उसके
और चेहरे पर चस्पा थी एक हंसी -काफी बारीक सी ,
मोनालिसा की याद आ गई...

फिर थोड़ा और करीब आ गया मैं उसके
और करीब से देखने ...
न तो वो संगीत की धुन पर नाच रही थी,
न ही वो कांच की अलमारियों में
रोशनी से नहाते जेवरों को देख रही थी ,
न ही लगती थी वो जुड़ी कहीं से,
ऐसा लगा
शायद वो तो थी ही नहीं 
वहाँ

क्या जरूरत है मुझे उसके
बारे में सोचने या जानने की,
मैं इसी उधेड़बुन में थोड़ा
परेशान सा होने लगा था,
इस जगमग के किसी हिस्से में
तो होगा उसका सपना
या फिर उसकी खुशी,

यही सोच रहा था,
तभी एक खूबसरत राजकुमार से
प्यारे बच्चे के साथ आई
सुंदर कपड़ों में लिपटी एक नारी
लिए ढेर सारा समान ,
यही तो वो सबकुछ था ,
जिसकी देखरेख का जिम्मा था इस लड़की पर
सम्हालने लगी जिन्हें वह लड़की,
मालकिन ने फिर एक कॉफी भी
रखवा दी उसकी टेबल पर ...

फिर कुछ समय बाद , सब कुछ उठा ,
वह 
चल पड़ी ....
उसकी  चाल बता रही थी
कि  वो अपनी दुनिया में
वापस लौट रही थी....
उसके जाने के बाद
उस खाली पड़ी कुर्सी पर
मैं उसे बहुत देर तक देखता रहा....
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.........रजनीश (26.12.10)
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