राह-ए-इश्क में क्यूँ गमों की भीड़ सताती है
हो कितनी ही काली रात सुबह जरूर आती है
बाग-ए-बहार दूर सही गमोसितम की महफ़िल से
फूलों की महक भला काँटों से कहाँ रुक पाती है
मंज़िलें खो जाने पर कहाँ ख़त्म होता है सफ़र
गुम हो रही राह से भी एक राह निकल आती है
फिक्र नहीं गम-ओ-दर्द का बसेरा मिलता है हर राह
कड़ी धूप हो या बारिश एक छांव तो मिल जाती है
राह-ए-इश्क में लुटा खुद को सारी खुशियाँ लुटा दो
गमों के साये गुम जाते हैं हर खुशी लौट आती है
........रजनीश (27.02.15)
हवा में हरदम ऊंचा उड़ता है
कभी जमीं पर चलकर देख,
फूलों का हार पहन इतराता है
कभी कांटे सर रखकर देख,
दौलत और दावतें उड़ाता है
कभी जूठन चखकर देख,
बस पाने की जुगत ही करता है
कभी कुछ अपना खोकर देख,
अपनी जीत के लिए खेलता है
कभी औरों के लिए हारकर देख,
जो नहीं उसके लिए ही रोता है
कभी जो संग उसके हँसकर देख,
बस किताबें पढ़ता रहता है
कभी चेहरों को पढ़कर देख,
औरों के रास्ते ही चलता है
कभी अपनी राह चलकर देख,
दूसरों के घर झाँकता रहता है
कभी अपने घर घुस कर देख...
......रजनीश (24.04.2013)
कोशिश करता रहता हूँ
खुद को जानने की
चल रहा हूँ एक लंबे सफर में
खुद को समझने की
सब करते होंगे ये
जो जिंदा है ,
मरे हुए नहीं करते
कोशिश का ये रास्ता ,
दरअसल भरा है काँटों से
बेसिर पैर और अनजानी सी जिंदगी
से बेहतर हैं ये कांटे
जिनकी चुभन से उड़ती है नींद और
खुल जाती है आँख
ये कांटे दिखाते हैं रास्ता
देते हैं हौसला
और भरते हैं मुझमें आशा ,
और आगे जाने की
खुद से बेहतर हो जाने की......
....रजनीश
आओ उस ओर चलें
जीवन की धारा में
हँसते हुए , दुखों को साथ लिए
आओ चलें ,
थामे हाथ , एक स्वर में गाते
एक ताल पर नाचते पैर
बैठें उस नाव में और बह चलें
आओ उस ओर चलें
आओ चलें
पार करें मिलकर वो पहाड़
जो फैलाए सीना रोज शाम
सूरज को छिपा लेता है अपने शिखर के पीछे
आओ चलें
लांघें उसे क्यूंकि उसके पीछे ही है
मीठे पानी की झील
आओ उस ओर चलें
कांटो से होकर खिलखिलाते फूलों की ओर,
आओ चलें उस मंजिल की ओर
जो जीवन में ही समाई है ,
कहीं दूर नहीं बस उन तूफानों और बादलों के बीच,
आओ उस ओर चलें
....रजनीश
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....