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Saturday, March 31, 2012

गुलाबजल (पुनः)

DSC00226 
(मेरी एक साल पुरानी कविता एक बार फिर से पोस्ट कर रहा हूँ )
आओ
बताऊँ  एक बात तुम्हें ,
मुझे तलाशते
जब तुम्हारी आँखों में गड़ता है कोई प्रश्नचिन्ह
कुछ धुंधला सा देखते हो ,
मैं कुछ शब्दों का गुलाबजल
बना कर लगा देता हूँ तुम्हारी आँखों में
मेरी झोली में शब्द हैं गिने-चुने
नतीजतन कुछ सवाल शब्दों में ही फंस जाते है
फिर शब्दों के चेहरे बदल कर पेश करता हूँ
कि थोड़ी और ठंडक पहुंचे
तुम्हारी आँखों को और
शब्द सफल हो जाएँ ,
पाँच अक्षरों की खूबसूरती को
बना  देता हूँ दो अक्षर का चाँद,
पर साथ घुस आता है 
दो शब्दों का दाग,
कैसे समेटूँ
सब कुछ तुम्हारे लिए..
कुछ शब्दों के मटके और
अविरल बहता जल,
इसलिए बेहतर होगा तुम आंखे बंद कर लो
महसूस करो ये प्रवाह ,
और एक स्पर्श में 
पूरा अभिव्यक्त हो जाऊंगा मैं  ...
...रजनीश ( 30.03.11)
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