Showing posts with label पसीना. Show all posts
Showing posts with label पसीना. Show all posts

Wednesday, May 1, 2013

बहता हुआ पसीना












( साल भर पुरानी कविता पुन: पोस्ट कर रहा हूँ )

बहता है पसीना
तब सिंचती है धरती 
जहां फूटते है अंकुर 
और फसल आती है 

बहता है पसीना 
तब बनता है ताज 
जिसे देखती है दुनिया
और ग़ज़ल गाती है 

बहता है पसीना 
तब टूटते है पत्थर 
चीर पर्वत का सीना 
राह निकल आती है

बहता है पसीना 
तब बनता है मंदिर 
चलती है मशीनें 
जन्नत मिल जाती है 

जो बहाता पसीना 
जो बनाता है दुनिया 
उम्र उसकी गरीबी में 
क्यूँ निकल जाती है 

....रजनीश (01.05.2012)
अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर 
अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस 1 मई को पूरे विश्व भर में मनाया जाता है । 
International Workers' Day is the commemoration of the 1886 Haymarket affair in Chicago
The first May Day celebration in India was organised in Madras 
by the Labour Kisan Party of Hindustan on 1 May 1923
(जानकारी  विकीपीडिया  से साभार ...)

Tuesday, May 1, 2012

बहता पसीना











बहता है पसीना
तब सिंचती है धरती 
जहां फूटते है अंकुर 
और फसल आती है 

बहता है पसीना 
तब बनता है ताज 
जिसे देखती है दुनिया
और ग़ज़ल गाती है 

बहता है पसीना 
तब टूटते है पत्थर 
चीर पर्वत का सीना 
राह निकल आती है

बहता है पसीना 
तब बनता है मंदिर 
चलती है मशीनें 
जन्नत मिल जाती है 

जो बहाता पसीना 
जो बनाता है दुनिया 
उम्र उसकी गरीबी में 
क्यूँ निकल जाती है 

....रजनीश (01.05.2012)
अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर 

Thursday, June 30, 2011

चंद शेर थोड़ा अफसोस

DSCN1424
उनकी हर अदा पे मुस्कुराते रहे हम
चुभता है दिल में ये कहना न आया

मरते मरते आदत मरने की हो गई
करते   हैं कोशिश पर जीना न आया

कब हुए वो संजीदा कब मसखरी की
हुए ख़ाक हम पर समझना न आया

हंसने से दिल को राहत पहुँचती है
गुदगुदाया खुद को पर हंसना न आया

दर्द की शक्ल क्या चेहरे पर झलकती है
दर्द हो गए हम पर दिखाना न आया

रियाया पे उनके सितम क्या कहें हम
काट ली पूरी गर्दन पर पसीना न आया

हसरत बहुत थी कुछ गुनगुनाएँ हम भी
जुबां पर कभी पर वो गाना न आया

कहते हैं लिखा सब हाथों  की लकीरों मे
फंस गए लकीरों में पर पढ़ना  न आया

न रदीफ़ न काफिया न मतला न मकता
ख़त्म हुए पन्ने   गज़ल कहना न आया
....रजनीश ( 30.06.2011)

Tuesday, May 31, 2011

कार

IMAG0604
चलते-चलते थक कर
किनारे सड़क के
रुकी इक कार से
टिककर कुछ सांसें लेता  हूँ
माथे पर उभर आई हैं बूंदें पसीने की...
पोंछते-पोंछते लगता है
जिस कार का सहारा लिया है
वो जैसे मेरी ही ज़िंदगी है
एक जगह पर "पार्क"
सड़क पर आने के लिए
कुछ सांसें इकठ्ठा करती ...
कार की तरह ही
एक छोटी सी नियत परिधि में
सफर तय करती ज़िंदगी
एक नियत क्रम में
जैसे एक खूँटे से बंधी ...
कितना सीमित कर लिया है
अपनी ज़िंदगी को इन रस्तों में
कितना थोड़ा सा हूँ मैं ...

फिर चल पड़ता हूँ
इस बार एक नई दिशा में
यही सोचकर कि शायद
कुछ और खुल जाऊँ
कुछ और खिल जाऊँ
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊँ
कुछ और संभावनाएं
कुछ नई शुरुआत
कुछ और सड़क और शिखर खोजूँ
क्यूंकि नहीं परखा है सीमाओं को
बहुत थोड़ा सा ही
जाना है और जिया है
खुद को अब तक ...
...रजनीश (30.05.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....