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Thursday, February 19, 2015

रोशनी और अंधेरा



रोशनी कर तो ली मैंने अंधेरा भी गुम हो गया
पर चिराग की जुगत में रस्ता ही गुम हो गया

अंधेरे में थी ना बात कि चरागों को बुझा सके
पर हवा का झोंका साजिश में शामिल हो गया

अंधेरा न आया कहीं से न गया ही था कहीं  
जला बस इक चिराग माहौल रोशन हो गया

रही संग उसके रोशनी जब तक जला चिराग
थक कर क्या रुका वो अंधेरे में खो गया 

रोशनी का समंदर  अंधेरे को डुबा न सका 
जाने कहाँ जलते चरागों का  दम खो गया

बढ़ते कदमों को रोकने का दम अँधेरों में कहाँ
जब सफर बुलंद हौसलों से रोशन हो गया 

अजब सी बात रोशनी में हम तुम ज़ुदा ज़ुदा
पर बंद आँखों से जब देखा मैं तुम हो गया
.....रजनीश (19.02.15)

Thursday, June 20, 2013

ये तय नहीं ...


तय है कि, धरती का सूरज
निकले है पूरब से
पर मेरा भी सूरज, पूरब से निकले
ये तय नहीं....

तय है कि, रात के बाद
आती है एक सुबह
पर हर रात की , एक सुबह हो,
ये तय नहीं....

तय है कि, पानी भाप होकर
बन जाता है बादल
पर उमड़-घुमड़ कर यहीं आ बरसे  
ये तय नहीं....

तय है कि, बिन आँखों के
नज़ारा दिख नहीं सकता
पर आंखों से सब दिख जाएगा
ये तय नहीं ....

तय है कि, ज़िंदगी पूरी हो
तो आ जाती है मौत,
पर मौत से पहले मौत ही ना हो
ये तय नहीं ....

तय है कि, ज़िंदगी पूरी हो
तो आ जाती है मौत,
पर मौत होने से कोई मर ही जाए
ये तय नहीं ....

तय है कि, मेहनत का फल
मीठा होता है
पर हर मेहनत का फल निकले
ये तय नहीं...

ये तय है कि, प्यार भरी हर अदा
खूबसूरत होती है
पर खूबसूरत अदा प्यार ही होगी  

ये तय नहीं ...
...........रजनीश (20.06.2013)

Saturday, March 31, 2012

गुलाबजल (पुनः)

DSC00226 
(मेरी एक साल पुरानी कविता एक बार फिर से पोस्ट कर रहा हूँ )
आओ
बताऊँ  एक बात तुम्हें ,
मुझे तलाशते
जब तुम्हारी आँखों में गड़ता है कोई प्रश्नचिन्ह
कुछ धुंधला सा देखते हो ,
मैं कुछ शब्दों का गुलाबजल
बना कर लगा देता हूँ तुम्हारी आँखों में
मेरी झोली में शब्द हैं गिने-चुने
नतीजतन कुछ सवाल शब्दों में ही फंस जाते है
फिर शब्दों के चेहरे बदल कर पेश करता हूँ
कि थोड़ी और ठंडक पहुंचे
तुम्हारी आँखों को और
शब्द सफल हो जाएँ ,
पाँच अक्षरों की खूबसूरती को
बना  देता हूँ दो अक्षर का चाँद,
पर साथ घुस आता है 
दो शब्दों का दाग,
कैसे समेटूँ
सब कुछ तुम्हारे लिए..
कुछ शब्दों के मटके और
अविरल बहता जल,
इसलिए बेहतर होगा तुम आंखे बंद कर लो
महसूस करो ये प्रवाह ,
और एक स्पर्श में 
पूरा अभिव्यक्त हो जाऊंगा मैं  ...
...रजनीश ( 30.03.11)

Wednesday, February 29, 2012

सूरत असली-नकली



दूर से मिलते आकर और चले जाते हैं दूर
दूर से ही दूर क्यों सीधे निकल नहीं जाते

दुहाई रिश्तों की और बयां हमनिवाला दिनों का 
जाया करते हैं वक़्त क्यों मुद्दे पर नहीं आते 

सारी रात चले महफिल और उनकी जाने की रट 
पर जमे रहते हैं क्यों उठकर चले नहीं जाते

वादा मदद का और साथ मुश्किलों का बखान
तकल्लुफ छोडकर क्यों सीधे पैसों पर नहीं आते

मुंह में राम राम और बगल में रखें रामपुरिया
पीठ पर ही वार क्यों  सीने में घोप नहीं जाते

जो मिला न उनको और वही मिल गया हमको
फ़ीका मुस्कुराते हैं क्यों सीधे जल नहीं जाते

आँखों से टपके आँसू और कलेजे में पड़ी है ठंडक
छोड़ गमगुसारी क्यों जाकर खुशियाँ नहीं मनाते

छुपता नहीं छुपाने से और चेहरे से बयां हो जाता है
मुखौटे बदलते हैं क्यों ये बात समझ नहीं पाते

.....रजनीश (29.02.12)

Wednesday, September 28, 2011

एक गीली नज़्म

021209 022
कई बार की थी
कोशिश कि पढ़ सकूँ 
उनकी आँखों में लिखी
एक नज़्म
पर नज़रें हर बार
बस देख सकीं 
उन शब्दों की सूरत
और पढ्ना ही ना हुआ
वो नज़्म आज भी
रहती है मेरे सिरहाने
पर जो लिखा  है
कभी पढ़ा ना गया
पहचान ना सका शब्दों को
हाँ  जब भी छुआ उन्हें
वो नम ही मिले हमेशा
और उनके  पार मिली
वही आँखें
वो कागज़ भी कभी
पुराना ना हुआ
...रजनीश (28.09.11)

Tuesday, July 26, 2011

व्यथा

IMAG0638


















मैंने देखी हैं ,एक जोड़ा आँखें ,
उम्र में छोटी, नादां, चुलबुली,
कौतूहल से भरी ,
पुराने चीथड़ों की गुड़िया
 खरोंच लगे कंचों
 पत्थर के कुछ टुकड़ों
 और मिट्टी के खिलौनों में बसी
 कुछ तलाशती आँखें
 भोली सी, प्यारी सी ,  
 दूर खड़ी , मुंह फाड़े , अवाक सब देखतीं हैं
 ... कितनी  हसीन दुनिया                                            
इन आँखों मे बनते कुछ  आँसू चाहत  के      
निकलते नहीं बाहर
और  आँखें ही अपना लेती हैं  उन्हें ..               
और मुड़कर घुस जाती हैं
 फिर उन चीथड़ों पत्थरों और काँच के टुकड़ों में                   
........रजनीश

Saturday, July 9, 2011

अंधेरा

DSCN3980
एक अंधेरा ,
मेरी आवाज
जब देख नहीं पाती तुम्हें ,
जब नहीं सुनाई देती मुझे
बातें दीवारों पर
लिखी इबारतों की,
जब हर वो चीज खो जाती है
जो दिला सके
तुम्हारे होने का एहसास ,
रात ज्यों घुस आती है कमरे में
छोड़कर चाँद-तारे
कहीं दूर  वादियों में,
आईना हो जाता है जब अंधा,
नज़रें दे जाती हैं धोखा,
अंधेरा छा जाता है
रोशनी के हर एक ठिकाने पर,
मैं कर लेता हूँ बंद आँखें
और एक छोटी सी लौ
कहीं मन से उतर कर
बैठ जाती है अंदर आंखों के करीब
दिखने लगता है पूरा मंजर
और जन्म होता है रोशनी का

मैं हूँ एक अंधेरे की परत
जो  फैली हो गर मुझसे बाहर
कुछ भी नज़र नहीं आता 
अंधेरे के सिवा
"मैं" ही है अंधेरा
इसे हर जगह से खुरचकर समेटकर
आँखों के अंदर बंद कर लेता हूँ
अंधेरा नहीं रह जाता है
एक अंधेरा रोशनी में भी रहता है ...
और बंद आँखों से वो दिखता है
जो रोशनी में छुपा रह जाता है ...
...रजनीश (09.07.2011)

Thursday, March 31, 2011

गुलाबजल

DSC00226
आओ
बताऊँ  एक बात तुम्हें ,
मुझे तलाशते
जब तुम्हारी आँखों में गड़ता है कोई प्रश्नचिन्ह
कुछ धुंधला सा देखते हो ,
मैं कुछ शब्दों का गुलाबजल
बना कर लगा देता हूँ तुम्हारी आँखों में
मेरी झोली में शब्द हैं गिने-चुने
नतीजतन कुछ सवाल शब्दों में ही फंस जाते है
फिर शब्दों के चेहरे बदल कर पेश करता हूँ
कि थोड़ी और ठंडक पहुंचे
तुम्हारी आँखों को और
शब्द सफल हो जाएँ ,
पाँच अक्षरों की खूबसूरती को
बना  देता हूँ दो अक्षर का चाँद,
पर साथ घुस आता है 
दो शब्दों का दाग,
कैसे समेटूँ
सब कुछ तुम्हारे लिए..
कुछ शब्दों के मटके और
अविरल बहता जल,
इसलिए बेहतर होगा तुम आंखे बंद कर लो
महसूस करो ये प्रवाह ,
और एक स्पर्श में 
पूरा अभिव्यक्त हो जाऊंगा मैं  ...
...रजनीश ( 30.03.11)

Saturday, February 5, 2011

आँसू

DSCN3524
कुछ बेवफ़ा बूंदों ने
छोड़ दिया दामन,
और अँखियों को रुला ,
जमीं की हो गईं ....
......
एक  बूंद और थी ,
जिसने न छोड़ा हाथ और
न दिया साथ
वो  किनारे पर बैठी –बैठी 
हवा में खो गई...
....
पर पलकों के साये में ,
जो झील रहती है,
उसमें बहुत पानी है ....
उसे कुछ गहरा किया है
और किनारों पर
थोड़ी मिट्टी डाली है ....
अगले सावन में तो पूरी भर जाएगी ।
.......रजनीश (05.02.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....